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आध्यात्मिक पूजन- विधान संग्रह
जिसे देखते सहज नशावें, भव-भव के दुष्कर्म विरूप। भावों में निर्मलता आवे, मानो हुये स्वयं जिनरूप ॥कैसी ॥ महाभाग्य से दर्शन पाया, पाया भेद-विज्ञान अनूप । चरणों में हम शीश नवावें, परिणति होवे साम्यस्वरूप ॥कैसी ॥
प्रभु - दर्शन
अद्भुत प्रभुता आज निहारी, आनन्द उर न समाया है । मानों रंक लही चिन्तामणि, त्यों निज वैभव पाया है ॥ १ ॥
ध्रुव चैतन्यमयी जीवन लख, जन्म अरु मरण नशाया है। दर्शन ज्ञान चक्षु दो शाश्वत, लोकालोक दिखाया है ॥२॥ सुख शक्ति देखी क्या मानों, सुख सागर लहराया है। निज सामर्थ्य अनन्त निहारी, ओर-छोर नहिं पाया है ॥ ३ ॥ अब स्वाधीन अखण्ड प्रतापी, शोभायुत प्रभु भाया है। निज के सब भावों में व्यापक, विभु प्रत्यक्ष दिखाया है ॥४॥ सदा प्रकाशित परम स्वच्छ, मोहान्धकार विनशाया है। स्वानुभूति से निज अन्तर में, निजानंद रस पाया है ॥५॥ अध्यवसान मुक्ति का भी नहिं, मुक्त स्वरूप दिखाया है। परमतृप्ति उपजी अब मेरे, निज में सर्वस्व पाया है ॥ ६ ॥ हो निस्पृह उपकारी प्रभुवर, निजपद हमें दिखाया है । भावसहित वन्दन हे जिनवर, ये रहस्य दरशाया है ॥७॥ दर्शाती जयवंत प्रभु नित...
दर्शाती जयवंत प्रभु नित, जिनवाणी जयवंत रहे ॥ टेक ॥ दर्शाती निज अक्षय वैभव, दर्शाती निज शाश्वत प्रभुता । दर्शाती आनन्दमय ज्ञायक, जिनवाणी जयवंत रहे ॥ १ ॥
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