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आध्यात्मिक पूजन- विधान संग्रह
जिन - भक्ति
धन्य घड़ी मैं दर्शन पाया, आज हृदय में आनन्द छाया । श्री जिनबिम्ब मनोहर लखकर, जिनवररूप प्रत्यक्ष दिखाया ॥ १ ॥ मुद्रा सौम्य अखण्डित दर्पण, में निजभाव अखण्ड लखाया। निज महिमा सर्वोत्तम लखकर, फूला उर में नहीं समाया ॥२॥ राग प्रतीक जगत में नारी, शस्त्र द्वेष का चिह्न बताया। वस्त्र वासना के लक्षण हैं, इन बिन निर्विकार है काया ॥३॥ जग से निस्पृह अन्तर्दृष्टि, लोकालोक तदपि झलकाया । अद्भुत स्वच्छ ज्ञानदर्पण में, मुझको ज्ञानहि ज्ञान सुहाया ॥४॥ कर पर कर देखे मैं जब से, नहिं कर्तृत्वभाव उपजाया । आसन की स्थिरता ने प्रभु, दौड़-धूप का भाव भगाया ॥५॥ निष्कलंक अरु पूर्ण विरागी, एकहि रूप मुझे प्रभु भाया । निश्चय यही स्वरूप सु मेरा, अन्तर में प्रत्यक्ष मिलाया ॥६॥ जिनमुद्रा दृष्टि में वस गई, भव स्वाँगों से चित्त हटाया । 'आत्मन् ' यही दशा सुखकारी, होवे भाव हृदय उमगाया ॥७॥ जिन - भक्ति
कैसी सुन्दर जिनप्रतिमा है, कैसा है सुन्दर जिनरूप । जिसे देखते सहज दीखता, सबसे सुन्दर आत्मस्वरूप ॥ टेक ॥ नग्न दिगम्बर नहीं आडम्बर, स्वाभाविक है शांत स्वरूप । नहीं आयुध नहीं वस्त्राभूषण, नहीं संग नारी दुखरूप ॥ कैसी ॥ बिन शृङ्गार सहज ही सोहे, त्रिभुवन माँहीं अतिशय रूप । कायोत्सर्ग दशा अविकारी, नासादृष्टि आनन्दरूप ॥ कैसी ॥ अर्हत् प्रभु की याद दिलाती, दर्शाती अपना प्रभु रूप । बिन बोले ही प्रगट कर रही, मुक्तिमार्ग अक्षय सुखरूप ॥कैसी ॥
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