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________________ 137 - आध्यात्मिक पूजन-विधान संग्रह भव ताप नाशा देव ! शीतलता स्वयं में ही मिली। आराधना की युक्ति पाई, सहज निज परिणति खिली। श्री वासुपूज्य जिनेन्द्र की, पूजा करूँ अति चाव सों। आनन्दमय ब्रह्मचर्य वर्ते, नाथ ! सहज स्वभाव सों।। ॐ ह्रीं श्री वासुपूज्य-जिनेन्द्राय संसारताप-विनाशनाय चन्दनं नि.स्वाहा। अक्षय अबाधित ज्ञानमय, चैतन्यप्रभु पाया अहो । तुष बिना तन्दुल सम अमल, अक्षय स्व-पद आधार हो॥श्री.।। ॐ ह्रीं श्री वासुपूज्य-जिनेन्द्राय अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतं नि. स्वाहा। प्रभु ! तुम गुणों की पुष्पमाला, कंठ में धारण करूँ। निष्काम ब्रह्मस्वरूप ध्याऊँ, अब्रह्म परिणति परिहरूँ॥श्री.।। ॐ ह्रीं श्री वासुपूज्य-जिनेन्द्राय कामबाण-विध्वंसनाय पुष्पं नि. स्वाहा। शुद्धात्म अनुभव के समान, न रस दिखे तिहुँलोक में। ताके आस्वादी क्षुधादिक, नाशे बसे शिवलोक में॥श्री.॥ ॐ ह्रीं श्री वासुपूज्य-जिनेन्द्राय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं नि. स्वाहा। चैतन्य ज्योति सु जगमगे, मोहान्धकार नहीं रहे। फिर बाह्य दीपक भी सहज निस्सार मुझको भी लगे॥श्री.॥ ॐ ह्रीं श्री वासुपूज्य-जिनेन्द्राय मोहांधकार-विनाशनाय दीपं नि. स्वाहा। आनन्दमय आराधना से, ध्यान की अगनी जले। निज सुगुण विलसें सर्व वैभाविक करम ईंधन जले॥श्री.।। ॐ ह्रीं श्री वासुपूज्य-जिनेन्द्राय अष्टकर्म-दहनाय धूपं नि. स्वाहा। तिहुँलोक पूजित सिद्धपद, आराधना का फल महा। यह जानकर लौकिक फलों का भाव नहीं किंचित् रहा ॥श्री.।। ॐ ह्रीं श्री वासुपूज्य-जिनेन्द्राय मोक्षफल-प्राप्तये फलं नि. स्वाहा । निर्भेद निरघ सु अर्घ्य लेकर, ज्ञानमय आनन्दमय। मैं अर्चना करता प्रभु, निर्द्वन्द्व पद पाऊँ अभय ॥श्री.॥ ॐ ह्रीं श्री वासुपूज्य-जिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अयं नि. स्वाहा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003170
Book TitleAdhyatmik Poojan Vidhan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra
PublisherKanjiswami Smarak Trust Devlali
Publication Year2008
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Worship, Religion, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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