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आध्यात्मिक पूजन-विधान संग्रह ऋद्धिधारी मुनिराज की पूजा में उन सभी ऋद्धियों के द्वारा मुनिराज का यशोगान एवं पूजा की जाती है।
स्वयं भावलिंगी मुनिराज भी राग एवं वीतरागता के समुदाय होते हैं। अतएव यदि उक्त प्रश्न उठाया जाए तो फिर मुनिराज की पूजा भी कैसे होगी ? इसलिए वास्तविकता यह है कि पूजाओं में पूज्य की अन्तरंग एवं बहिरंग सभी विशेषताओं के द्वारा वीतरागता की पूजा होती है। भगवान अरहंत के छियालीस गुण होते हैं, किन्तु देखा जाए तो भगवान के अपने तो अनन्त चतुष्टय ही हैं शेष तो सब उदयजन्य हैं, फिर भी सभी गुणों के माध्यम से भगवान अरहन्त की पूजा की जाती है।"
वास्तव में यह सम्पूर्ण निबन्ध ही बारम्बार पठनीय, मननीय, विचारणीय एवं प्रचारणीय है। इसका निम्न अंश तो हम सबकी आँखें खोलने में अति ही समर्थ है :
"कुछ पूजाएँ ऐसी भी लिखी गई हैं जिनमें नित्य नियम की तीन पूजाओं को एक में ही घुसेड़ने का प्रयत्न किया गया है; किन्तु पूजा में ऐसी उतावल की आवश्यकता ही नहीं थी, क्योंकि कभी कदाचित् समय कम होने पर एक ही पूजा से सारा काम हो जाता है, अनेक पूजाएँ करने का अर्थ अनेक देवों की पूजा करना नहीं होता और न पूजाओं की गिनती पूरा करना होता है, वरन् पूजा करने के लिए खड़े हुए गृहस्थ श्रावक का मन एक पूजा से भरता ही नहीं है; अतएव अनेक पूजाओं के बहाने सचमुच तो वह भाव विशुद्धि की मानसिक खुराक को ही पूरा करता है।
ऐसी पूजाओं में भी यह देखा जाता है कि न तो उनके शब्दों में भाव . की स्फुरणा है और न काव्यत्व है, किन्तु अनेक पूजाओं का अनुकर
मात्र करके लिखने और छपने के लिए ही वे पूजाएँ लिखी गई हैं। १. चैतन्य की उपासना पृष्ठ ४३-४४, २. चैतन्य की उपासना पृष्ठ ४१
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