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आध्यात्मिक पूजन-विधान संग्रह
४. आधुनिक खड़ी बोली के साथ-साथ अनेक स्थलों पर प्राचीन पूजनों की भाषा का प्रयोग भी किया गया है। यथा महावीर पूजन में:
इन्द्रादिनमन्ता, ध्यावत संता, सुगुण अनन्ता, अविकारी। श्री वीर जिनन्दा, पाप निकन्दा, पूजों नित मंगलकारी॥
इसप्रकार पण्डितजी साहब द्वारा रचित समग्र रचनाओं पर गहन चिन्तन करके विस्तृत समीक्षा लिखने की आवश्यकता है।
सोलहकारण पूजन में बार-बार एक पंक्ति दोहराई गई है पूजूं ध्याऊँ सुखकारी सोलहकारण दुखहारी।' ___ यहाँ आम्रव के कारणरूप भावनाओं की पूजा करने की बात कुछ लोगों को खटक सकती है। परन्तु इस सन्दर्भ में “चैतन्य की उपासना" पुस्तक में प्रकाशित बाबू युगलजी के लेख “जिनेन्द्र पूजन स्वरूप एवं समीक्षा" का निम्न अंश विचारणीय है।
__ "पंचकल्याणक एवं सोलहकारण आदि पूजा-सोलहकारण आदि भावना का भाव शुभभाव माना जाता है और उसे तीर्थंकर प्रकृति के बंध का हेतु भी आगम में कहा गया है और इसी प्रकार भगवान के गर्भ, जन्म आदि कल्याणकों के सम्बन्ध में प्रश्न हो सकता है। प्रश्न यह हो सकता है कि राग तो बंध का कारण है फिर उसकी पूजा कैसे की जाए ? .
उत्तर - वास्तव में सोलहकारण आदि अकेला राग नहीं है, उसके साथ सम्यग्दर्शन एवं सम्यक्चारित्र भी विद्यमान रहता है, किन्तु सम्यग्दर्शन एवं सम्यक्चारित्र तो आत्माश्रित एक रूप वृत्तियाँ हैं; अतएव उनके वर्णन का विस्तार उनके साथ अनिवार्य रूप से रहने वाले शुभभाव रूप व्यवहार के बिना नहीं हो सकता।
अतः सोलहकारण भावना की पूजा सचमुच राग पूजा नहीं वरन् वीतराग पूजा है, जैसे चौसठ ऋद्धि पूजा में कुछ हीऋद्धियाँ आत्मा की शुद्ध परिणति हैं, अधिकांश ऋद्धियाँ तो कर्मोदयजन्य हैं, फिर भी
ता।
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