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क्रमबद्धपर्याय : निर्देशिका
2. आत्मख्याति के प्रारम्भ में आचार्य अमृतचन्द्र लिखते हैं यह टीका करने से मेरी परिणति परम विशुद्धि को प्राप्त हो। और अन्त में लिखते हैं इस टीका के बनाने में स्वरूपगुप्त अमृतचन्द्र का कुछ भी कार्य नहीं है। यही आशय पण्डित टोडरमलजी ने सम्यग्ज्ञान-चन्द्रिका की पीठिका और प्रशस्ति में व्यक्त किया है, इससे सिद्ध होता है कि ज्ञानी के वचन-व्यवहार और मान्यता में अन्तर होना छल-कपट का प्रतीक नहीं है; अपितु यह वस्तु स्थिति है। क्योंकि वचन-व्यवहार लोक के अनुसार ही सम्भव है, अन्यथा लौकिक व्यवहार चल नहीं सकता और लोक ज्ञानियों को पागल समझकर उनका तिरस्कार करेगा तथा उनके निमित्त से आत्महित नहीं कर सकेगा। ..
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प्रश्न 11 गर्भित आशय :-तत्त्वार्थसूत्र के दूसरे अध्याय के अन्तिम सूत्र में लिखा है कि उपपाद जन्मवाले देव और नारकी, चरम शरीरी, और असंख्यात वर्ष की आयुवाले भोगभूमि के जीवों की आयु अपवर्तन रहित होती है। इसका अर्थ तो यह हुआ कि कर्मभूमि के मनुष्य और तिर्यञ्चों की आयु का अपवर्तन होता है, अर्थात् उनकी अकालमृत्यु भी हो जाती है। यदि ऐसा है, तो सभी पर्यायें निश्चित क्रमानुसार होती हैं-यह नियम कहाँ रहा।
उत्तर :
- 1. उक्त कथन आयुकर्म की उदीरणा की अपेक्षा से किया गया है; अर्थात्
आयुकर्म की अपेक्षित स्थिति पूरी होने के पूर्व ही मरण हो जाये, तो उसे अकाल मृत्यु कहा जाता है। उस जीव की आयु कर्म के परमाणु बाँधी गई स्थिति के इतने समय पूर्व इस निमित्त की उपस्थिति में खिर जायेंगे और इसकी मृत्यु हो जाएगी - यह बात भी केवली के ज्ञान में तो झलकी है, अतः वह मृत्यु भी अपने स्वकाल में हुई है, अकाल में नहीं।
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