________________
क्रमबद्धपर्याय : कुछ प्रश्नोत्तर
87
उत्तर :
1. पर-पदार्थों का परिणमन करने का नाम स्वतन्त्रता नहीं है, अपितु एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कुछ नहीं करता-इस व्यवस्था का नाम स्वतन्त्रता है। प्रत्येक द्रव्य का परिणमन स्वतन्त्र है, अर्थात् हम पर-पदार्थों का परिणमन नहीं कर सकते - यह पर-द्रव्य की स्वतन्त्रता है। स्वतन्त्रता के नाम पर पर-पदार्थों को अपने आधीन करने की चेष्टा घोरतम अपराध है। किसी राज्य-व्यवस्था में कोई चोरी नहीं कर सकता, किसी की हत्या नहीं कर सकता, तो इसमें चोरों और हत्यारों को पराधीनता भले दिखे, परन्तु इसमें उस राज्य की सुव्यवस्था ही है, पराधीनता नहीं।
2. हमारा सुख-दुःख, जीवन-मरण, भला-बुरा सब कुछ हमारे आधीन है, उसमें किसी का कोई हस्तक्षेप नहीं है-ऐसी प्रतीति करने में हमें परम स्वतंत्रता का अनुभव होगा।अतः क्रमबद्धपर्याय में वस्तु की अनन्त स्वतंत्रता की घोषणा है।
****
प्रश्न 9 एवं 10 गर्भित आशय :- यदि एक द्रव्य दूसरे द्रव्य की पर्यायों का कर्ता नहीं है तो ज्ञानी ऐसा क्यों कहते हैं कि “मैंने भोजन किया, मैंने पूजन की, मैंने व्यापार किया .........” इत्यादि। क्या वे भी ऐसा मानते हैं? यदि नहीं, तो उनकी मान्यता
और कथन में अन्तर क्यों है? उत्तर :
1. ज्ञानी की मान्यता वस्तु-स्वरूप के अनुसार होती है, और वाणी लोकव्यवहार के अनुसार निमित्त की मुख्यता से होती है। यह मेरा मकान है, यह मेरा पुत्र है, मैं अमुक व्यापार करता हूँ, मैं प्रवचन करता हूँ ...... आदि वचनव्यवहार करते हुए भी वे मिथ्यादृष्टि नहीं होते, क्योंकि मिथ्यात्व मान्यता का दोष है, वाणी का नहीं। पण्डित टोडरमलजी द्वारा रहस्यपूर्ण चिट्ठी में दिये गए मुनीम के उदाहरण से यह बात अच्छी तरह समझी जा सकती है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org