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क्रमबद्धपर्याय : एक अनुशीलन
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चौबीस तीर्थंकर, तिरेसठ शलाका पुरुष, ढाई द्वीप, पाँचों मेरु, नन्दीश्वर द्वीप, स्वर्ग-नरक आदि सभी कुछ हम सर्वज्ञ कथित आगम के आधार से ही मानते हैं, फिर क्रमबद्धपर्याय जैसे सूक्ष्म विषय के लिए सर्वज्ञता या सर्वज्ञ कथित आगम का सहारा क्यों छोड़ दिया जाये?
क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा के लिए न सही, देव-शास्त्र-गुरु की श्रद्धा के लिए तो सर्वज्ञता का निर्णय करना ही पड़ेगा।
2. क्रमबद्धपर्याय का विरोध करने वाले स्वयं को देव-शास्त्र-गुरु के रक्षक और आगम का संरक्षक मानते हैं परन्तु वे यह नहीं सोचते कि सर्वज्ञता अर्थात् क्रमबद्धपर्याय का निर्णय किए बिना देव-शास्त्र-गुरु का स्वरूप नहीं समझा जा सकता, तथा आगम तो सर्वज्ञ की वाणी है, जिसमें निश्चित भविष्य की असंख्य घोषणायें भरी पड़ी हैं। आगम के आधार बिना करणानुयोग का भी एक भी विषय सिद्ध नहीं किया जा सकता। अतः सर्वज्ञता का आधार छोड़ने का आग्रह करना उचित नहीं है। ___ 3. न केवल क्रमबद्धपर्याय अपितु सभी सिद्धान्तों का प्रतिपादन आचार्यों ने सर्वज्ञता के आधार पर किया है, अतः सर्वज्ञता और आगम के आधार बिना किस-किस सिद्धान्त को प्रतिपादित किया जाएगा?
4. देव-शास्त्र-गुरु को हमारी सुरक्षा की आवश्यकता नहीं है, वे तो सुरक्षित ही हैं। हमें भव-भ्रमण से अपनी सुरक्षा करना हो तो उनका सच्चा स्वरूप समझना होगा। कुन्दकुन्दाचार्य देव प्रवचनसार की 80वीं गाथा में मोह का नाश करने के लिए अरहन्त भगवान को जानने की बात कहकर वे 82वीं गाथा में कहते हैंसभी अर्हन्तों ने इसी विधि का उपदेश दिया है- ऐसे अर्हन्तों को नमस्कार हो। इस गाथा की टीका में आचार्य अमृतचन्द्र कहते हैं :- “अधिक प्रलाप से बस होओ, मेरी मति व्यवस्थित हो गई है।"
उक्त विवेचन से स्पष्ट है। आत्महित के लिए सर्वज्ञता और क्रमबद्धपर्याय का स्वरूप समझकर अपनी मति व्यवस्थित करना अनिवार्य है।
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