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क्रमबद्धपर्याय: निर्देशिका
ही ज्ञायक स्वभाव के सन्मुख हो सकते हैं। अतः क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा में ज्ञायक स्वभाव की सन्मुखता का अनन्त पुरुषार्थ समाहित है।
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5. सच्चे देव - शास्त्र - गुरु की श्रद्धा को सम्यग्दर्शन कहा जाता है और सर्वज्ञता की श्रद्धा बिना सच्चे देव - शास्त्र - गुरु की श्रद्धा नहीं हो सकती; क्योंकि सच्चे देव राग और सर्वज्ञ हैं, शास्त्र सर्वज्ञ की वाणी है और गुरु उनके बताए हुए मार्ग पर चलने वाले होते हैं ।
प्रश्न :
81. सर्वज्ञ को जानने से मोह का क्षय किस प्रकार होता है?
82. सर्वज्ञता, क्रमबद्धपर्याय और ज्ञायक स्वभाव की सन्मुखता में परस्पर सम्बन्ध स्थापित कीजिए ?
83. सर्वज्ञता की श्रद्धा बिना सच्चे देव-शास्त्र-गुरु की श्रद्धा क्यों नहीं होती ?
सर्वज्ञता के निर्णय की अनिवार्यता
गद्यांश 30
कुछ लोगों का कहना है..
. बुद्धि को व्यवस्थित करते हैं।
( पृष्ठ 60 पैरा नं. 6 से पृष्ठ 64 पैरा नं. 6 तक)
विचार बिन्दु :
1. कुछ लोग कहते हैं कि क्रमबद्धपर्याय सिद्ध करने के लिए सर्वज्ञता का सहारा क्यों लिया जाता है, उसे वस्तु स्वरूप के आधार से सिद्ध कीजिए ?
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प्रवचनसार गाथा 99 से 101 में त्रिलक्षण परिणाम पद्धति के प्रकरण में वस्तु-स्वरूप के अनुसार सर्वज्ञता सिद्ध की गई है; फिर भी सर्वज्ञता जैन दर्शन में सर्वमान्य है, अतः जिन्हें सर्वज्ञता की थोड़ी भी श्रद्धा है, उन्हें क्रमबद्धपर्याय समझने में सुविधा रहती है। साधारण बुद्धिवालों को भी सर्वज्ञता के आधार से यह सूक्ष्म विषय समझ में आ सकता है।
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