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________________ क्रमबद्धपर्याय : एक अनुशीलन 77 सर्वज्ञता की श्रद्धा गद्यांश 29 सर्वज्ञ को धर्म का मूल.... ...........श्रद्धान ही सम्यग्दर्शन है। (पृष्ठ 57 पैरा नं. 5 से पृष्ठ 60 पैरा नं. 5 तक) विचार बिन्दु :___ 1. सर्वज्ञ भगवान धर्म के मूल हैं, क्योंकि उनकी सच्ची श्रद्धा से ही सम्यग्दर्शन अर्थात् धर्म का प्रारम्भ होता है। सर्वज्ञ भगवान को द्रव्य-गुण-पर्याय से जाननेवाला अपने आत्मा को जानता है और आत्मा को जानने से उसका मोहक्षय अवश्य होता है; क्योंकि आत्मा को नहीं जाननाही मोह है, अतः आत्मा को जानना मोह के अभाव स्वरूप है। ___ 2. सर्वज्ञ के द्रव्य-गुण को जानने से आत्मा का कालिक स्वरूप ज्ञात होता है, तथा पर्याय को जानने से अपनी और उनकी पर्यायों का अन्तरख्याल में आता है, जिससे रागादि विकारी भाव और अल्पज्ञता आत्मा का स्वरूप नहीं है - ऐसा निर्णय होने से उनसे भेदज्ञान होता है। इसप्रकार सर्वज्ञ के सच्चेस्वरूप को जानकर ही सर्वज्ञ बनने का सच्चा पुरुषार्थ प्रगट किया जा सकता है। जिसप्रकार तीर्थंकर माँ के गर्भ में आने के पहले उनके स्वप्नों में आते हैं, उसीप्रकार सर्वज्ञता पर्याय में प्रगट होने के पहले समझ में आती है। समझ में आए बिना वह प्रगट नहीं हो सकती। 3. इस कलिकाल में कुछजैन-धर्मानुयायी भी पक्ष-व्यामोह केकारणसर्वज्ञता में भी मीन-मेख निकालने लगे हैं। आचार्य समन्तभद्र ने डंके की चोट पर सर्वज्ञता सिद्ध की है, अतः वे कलिकाल सर्वज्ञ कहलाए, आध्यात्मिक सत्पुरुष पूज्य गुरुदेव श्री कानजीस्वामी ने भी इस युग में यही कार्य किया है। ___4.सर्वज्ञता और क्रमबद्धपर्याय एकही सिक्केकेदो पहलू हैं, क्योंकि सर्वज्ञता सेक्रमबद्धपर्याय की सिद्धि तथा क्रमबद्धको मानने से सर्वज्ञता की सिद्धि होती है। इन दोनों की श्रद्धा ज्ञायक स्वभाव के सन्मुख होने से होती है तथा इनके निर्णय से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003169
Book TitleKrambaddha Paryaya Nirdeshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size5 MB
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