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________________ क्रमबद्धपर्याय: निर्देशिका 5. पुरुषार्थ जीव द्रव्य की पर्याय है; अतः उसका कार्य जीव की पर्याय में होता है, पर में नहीं । अतः भगवान का अनन्त पुरुषार्थ निज में है, पर में नहीं। अपने को पर और पर्यायों का कर्ता मानने में अनन्त विपरीत पुरुषार्थ है, जिसका फल संसार-भ्रमण है; तथा अपने में लीन रहकर पर और पर्यायों को मात्र जानने में अनन्त सम्यक् पुरुषार्थ है, जिसका फल मुक्ति है। 76 6. अज्ञानी मानते हैं कि “वस्तु का परिणमन केवलज्ञान के अनुसार मानने पर हम उसमें कोई परिवर्तन नहीं कर सकते; इसलिए उसमें पुरुषार्थ का लोप हो जाता है ।" परन्तु उनका ऐसा मानना मिथ्या है, क्योंकि पर में परिवर्तन करना आत्मा का पुरुषार्थ है ही नहीं। जिसने केवलज्ञान का तथा सर्वज्ञ का निर्णय किया है उसे अपने ज्ञान स्वभाव का निर्णय अवश्य होता है और यही सच्चा पुरुषार्थ है । केवलज्ञान का निर्णय करने वाले ज्ञान में ही अनन्त पुरुषार्थ प्रगट हो जाता है। जिसे क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा में पुरुषार्थहीनता दिखती है, उसे केवलज्ञान या क्रमबद्धपर्याय का सच्चा निर्णय नहीं है, वह पुरुषार्थ का सच्चा स्वरूप भी नहीं जानता। वह पर-कर्तृत्व और पर्यायों के हेर-फेर को ही पुरुषार्थ समझ रहा है, जबकि ऐसा मानने पर पुरुषार्थ तो टूटना ही चाहिए । यदि वह सर्वज्ञता और पुरुषार्थ के सच्चे स्वरूप का निर्णय करे तो उसे पुरुषार्थ का निषेध होने की शंका नहीं रहेगी। अतः उसे सर्वज्ञता और पुरुषार्थ के सच्चे स्वरूप पर गंभीरता से विचार करके यथार्थ निर्णय करना चाहिए। प्रश्न : 77. पुरुषार्थ किसे कहते हैं? 78. क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा में पुरुषार्थ कैसे प्रगट होता है ? 79. क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा से पुरुषार्थ का लोप हो जाता है - इस मान्यता का खण्डन कीजिए ? 80. जिन्हें क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा में पुरुषार्थ का लोप दिखता है, उन्हें क्या विचार करना चाहिए? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003169
Book TitleKrambaddha Paryaya Nirdeshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size5 MB
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