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________________ 75 क्रमबद्धपर्याय : एक अनुशीलन 74. मोक्षमार्ग में किस समवाय की मुख्यता से कथन होता है और क्यों? 75. किसी कार्य की उत्पत्ति का कारण पाँचों समवायों की मुख्या से बताइये? 76. प्रत्येक समवाय का स्वरूप समझने से कौन से पुरुषार्थ की प्रेरणा मिलती है और कैसे? * * * * क्रमबद्धपर्याय और पुरुषार्थ गद्यांश 28 पुरुषार्थसिद्धयुपाय..... ........विनम्र अनुरोध है। (पृष्ठ 54 से पृष्ठ 57 पैरा नं. 4 तक) विचार बिन्दु :____ 1. पुरुषार्थसिद्धयुपाय ग्रन्थ में आत्मा को पुरुष तथा आत्मानुभूति के प्रयत्न को पुरुषार्थ कहा है। जब तक पर-पदार्थों और पर्यायों में इच्छानुकूल परिणमन कराने की मान्यता रहती है, तब तक आत्मानुभूति नहीं हो सकती, क्योंकि ऐसी मान्यता में दृष्टि स्वभाव सन्मुख नहीं होती, पर में ही रहती है। क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा से ऐसी मान्यता टूटकर अकर्ता ज्ञायक स्वभाव की दृष्टिपूर्वक सम्यग्दर्शन होता है। 2. दृष्टि का स्वभाव सन्मुख ढलना ही मुक्ति के मार्ग में अनन्त पुरुषार्थ है। क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा करने वाले को उक्त श्रद्धा के काल में आत्मोन्मुखी अनन्त पुरुषार्थ होने का और सम्यग्दर्शन होने का क्रम भी सहज होता है। 3. यह जगत् पर और पर्याय के कर्तृत्व के अहंकार से ग्रस्त है और इसमें ही पुरुषार्थ समझता है। इन विकल्पों से विराम लेकर आत्मा में स्थिरता रूप पुरुषार्थ को वह नहीं जानता। ___ 4. जिन्हें क्रमबद्धपर्याय की स्वीकृति में पुरुषार्थ का लोप दिखता है, उन्हें विचार करना चाहिए कि सर्वज्ञ भगवान भी पर और पर्यायों में परिवर्तन के विकल्पों से रहित होकर अपने में ही लीन होते हुए भी अनन्त पुरुषार्थी हैं, तो फिर हम भी क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा करके सम्यक्-पुरुषार्थ प्रगट क्यों नहीं कर सकते? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003169
Book TitleKrambaddha Paryaya Nirdeshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size5 MB
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