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क्रमबद्धपर्याय : निर्देशिका
प्रश्न :84. क्रमबद्धपर्याय को सिद्ध करने के लिए सर्वज्ञता को आधार बनाना अनिवार्य
क्यों है? 85. क्रमबद्धपर्याय को विरोध करने वाले सर्वज्ञता के बारे में क्या भूल करते हैं?
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अव्यवस्थित मति और स्वचलित व्यवस्था
गद्यांश 31 अरे भाई....
.......विराम लेता हूँ। (पृष्ठ 64 पैरा नं. 7 से पृष्ठ 67 सम्पूर्ण) विचार बिन्दु :
1. यह जगत् तथा इसकी परिणमन व्यवस्था व्यवस्थित और स्वचलित है, परन्तु अज्ञानी को अव्यवस्थित नजर आती है और वह इसे व्यवस्थित करना चाहता है; इसकी ऐसी बुद्धि ही अव्यवस्थित मति है। जैसे - चलती रेल में बैठा व्यक्ति स्वयं को स्थिर तथा बाहर के पेड़-पौधों को दौड़ता हुआ समझता है, वैसे ही यह अज्ञानी जीव जगत को अव्यवस्थित मानकर उसे व्यवस्थित करने के विकल्पों में उलझता रहता है। जहाँ सब कुछ पूर्ण व्यवस्थित है, कुछ भी परिवर्तन सम्भव नहीं है वहाँ यह व्यवस्थापक बनता है, और जहाँ अव्यवस्था है अर्थात् अपनी श्रद्धा और ज्ञान में विपरीतता है, वहाँ इसका ध्यान नहीं है; अतः यह जगत को व्यवस्थित करने की चेष्टा में दुःखी होता रहता है।
2. जब तक यह जीव कर्तृत्व के अहंकार से ग्रस्त है, तबतक इसकी मति व्यवस्थित नहीं हो सकती, क्योंकि व्यवस्थापक बनने की धुन में यह व्याकुल हो रहा है और जब तक इसकी मति व्यवस्थित नहीं होगी तब तक इसकी आकुलता नहीं मिटेगी।
3. व्यवस्थापक बनने की धुन में यह स्वीकार ही नहीं कर पाता कि जगत स्वयं व्यवस्थित है, क्योंकि जगत को व्यवस्थित मानने पर इसका व्यवस्थापकपना खतरे में पड़ जाता है। जगत को अव्यवस्थित मानने पर ही उनका व्यवस्थापकपना सुरक्षित रहता है। यही कारण है कि अज्ञानी की समझ में सुनिश्चित और स्वचलित व्यवस्था नहीं आती।
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