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अहो भाग्य श्री जिनवर का, दिव्य-ध्वनि का कुन्दकुन्द का है उपकार । जिनवर-कुन्द-ध्वनि दाता श्री गुरु कहान को नमन हजार ।।
आध्यात्मिक सत्पुरुष पूज्य गुरुदेवश्री कानजीस्वामी की अकारण करुणा के फलस्वरूप प्राप्त तत्त्वज्ञान हम सबके जीवन की बहमूल्य निधि है। उनके द्वारा समझाए गए जिनागम के अनेक सिद्धान्तों में से क्रमबद्धपर्याय तो मानो तत्काल भव का अन्त करके गुक्ति लक्ष्मी को प्राप्त कराने वाला महामंत्र है।
- पूज्य गुरुदेव श्री के माध्यम से यह महामन्त्र प्राप्त करके अपने जीवन को भवान्तक दिशा देने वाले तत्त्ववेत्ता विद्वतशिरोमणि माननीय डॉ. हुकमचन्दजी भारिल्ल भी अपनी रोचक शैली, प्रभावशाली वाणी और बोधगम्य लेखनी के माध्यम से उक्त महामंत्र के प्रचार-प्रसार में सर्वस्व समर्पित किए हुए हैं। उनकी लेखनी के जादू से स्वयं पूज्य गुरुदेवश्री भी प्रभावित होकर कह उठे "बधा पंडितो पानी भरे छे...... गुरुदेवश्री द्वारा उनकी अमर कृति ‘धर्म के दशलक्षण' और 'क्रमबद्धपर्याय' के बारे में मुक्त कण्ठ से व्यक्त किये गए प्रशंसा भरे उद्गार आज भी कैसेट के माध्यम से सुनकर रोमाञ्च हो जाता है।
वे मेरी मनुष्य पर्याय के उत्कृष्टतम सौभाग्यशाली क्षण थे, जब मैं सन् 1968 में पूज्य गुरुदेवश्री के और 1970 में डॉ. भारिल्लजी के सम्पर्क में आया। पूज्य गुरुदेवश्री से प्राप्त, दृष्टि के विषय, वस्तु स्वातन्त्र्य, क्रमबद्धपर्याय, निश्चय-व्यवहार, उपादाननिमित्त आदि अनेक विषयों को स्पष्ट रूप से समझकर उनका मर्म जानने का तथा उनके प्रति सन्तुलित दृष्टिकोण प्राप्त करने का अवसर माननीय डॉ. साहब का विद्यार्थी बनने से मुझे सहज ही प्राप्त हो गया। उन्होंने मुझे जुलाई, 1977 से प्रारम्भ होनेवाले श्री टोडरमल दिगम्बर जैन सिद्धान्त महाविद्यालय के प्रथम बैच में प्रवेश लेने हेतु न केवल प्रेरित किया, अपितु दिल खोलकर अपने तत्त्व-चिन्तन की गहराइयों से समृद्ध करने में कोई कसर नहीं रखी। एतदर्थ कृतज्ञता व्यक्त करने हेतु में स्वयं को शक्तिहीन अनुभव करता हूँ।
सन् 1981 में शास्त्री परीक्षा पास करने के पश्चात् उन्होंने मुझे महाविद्यालय में अध्यापन करने का अवसर प्रदान करके मानों अमूल्य वरदान दे दिया। 17 वर्षों तक समयसार, मोक्षमार्ग प्रकाशक, आप्त परीक्षा, आप्त मीमासा, क्रमबद्धपाय, नयचक्र
आदि ग्रन्थों को पढ़ाने का अवसर प्रदान करके उन्होंने मुझ पर जो उपकार किया है, उसका ऋण चुकाना संभव नहीं है।
उक्त ग्रन्थों का अध्यापन करते-करते स्वयं को उनकी अतल गहराइयों में जाकर भाव-भासन का जो अपूर्व लाभ प्राप्त हुआ है, उसके सम्मुख चक्रवर्ती की सम्पदा का
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