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क्रमबद्धपर्याय : एक अनुशीलन
2. कार्य की उत्पत्ति पाँचोंसमवायों से होती है, परन्तु किसी एकसमवायको मुख्य करके उससे कार्य की उत्पत्ति कही जाती है। उस समय कथन में अन्य समवाय गौण रहते हैं, उनका अभाव अपेक्षित नहीं होता है। इसप्रकार क्रमबद्धपर्याय की व्यवस्था को सम्यक्-एकान्त भी कहा जा सकता है, जो कि सम्यक्-अनेकान्त का पूरक है, विरोधी नहीं।
3.क्रमबद्धपर्याय व्यवस्था का व्यापक स्वरूप स्पष्ट करते हुए यह पहले ही कहा जा चुका है कि “जिस द्रव्य की, जिस क्षेत्र में, जिस काल में, जो पर्याय जिस विधि सेतथा जिस निमित्त की उपस्थिति में होना है; उसी द्रव्य की, उसी क्षेत्र में, उसी काल में वही पर्याय, उसी विधि से तथा उसी निमित्त की उपस्थिति में होगी" इस व्याख्या के अनुसार वस्तु की परिणमन व्यवस्था में न केवल विवक्षित परिणमन का स्वकाल निश्चित है, अपितु उस परिणमन से सम्बन्धित द्रव्य, क्षेत्र, भाव, विधि (पुरुषार्थ) निमित्त आदि सभी बातें निश्चित हैं, इसलिए वे सर्वज्ञ के ज्ञान में झलकते हैं और तदनुसार कार्य की उत्पत्ति होती है। ___4. सभी सम्बन्धित पक्ष निश्चित हैं- इस व्यवस्था को इस प्रकार कहा जा सकता है कि “जिस जीव को केवलज्ञान होना होगा, उसी को होगा, अन्य जीव को नहीं; जिस स्थान पर होना होगा, उसी स्थान पर होगा, अन्य स्थान पर नहीं, जब होना होगा तभी होगा, अन्य समय में नहीं..... इत्यादि।
5. अज्ञानी को द्रव्य, क्षेत्र, निमित्त आदि के निश्चित होने में कोई आपत्ति नहीं होती, परन्तु काल के निश्चित होने में उसे बन्धन, पुरुषार्थ-हीनताआदिकी शंका होती है। उतावलेपन की वृत्ति के कारण वह विवक्षित कार्य को जल्दी करना चाहता है, जल्दी करने में ही उसे पुरुषार्थ लगता है, तथा निश्चित समय पर, कार्य होने में उसे पुरुषार्थ-हीनता लगती है। ___6. जिस जीव की सम्यक्त्वपर्याय का काल दूर होता है, उसे काल की नियमितता का विश्वास नहीं होता। लोक में भी देखा जाता है कि अल्प समय पश्चात् होने वाले कार्य को लोग सहज स्वीकार कर लेते हैं और तदनुकूल प्रयत्न करने लगते हैं; जबकि बहुत समय बाद होने वाले कार्य के प्रति उदासीन रहते हैं।
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