SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 67
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ क्रमबद्धपर्याय : एक अनुशीलन 65 नित्य भी है और सर्वथा अनित्य भी है। मिथ्या अनेकान्त को उभयैकान्त भी कहते हैं। 3. जैन-दर्शन में अनेकान्त को भी अनेकान्तरूप से स्वीकार किया गया है। सर्वथा एकान्तरूप से नहीं। अर्थात् जैन-दर्शन सर्वथा एकान्तवादी नहीं है, कथञ्चित् अनेकान्तवादी है और कथञ्चित एकान्तवादी है। यही अनेकान्त में अनेकान्त है। ___4. अरनाथ भगवान की स्तुति करते हुए वृहद् स्वयंभूस्तोत्र छंद क्रमांक 103 में आचार्य समन्तभद्र कहते हैं कि :___ “प्रमाण और नय हैं साधन जिनके, ऐसा अनेकान्त भी अनेकान्त स्वरूप है, क्योंकि सर्वांशग्राही प्रमाण की अपेक्षा वस्तु अनेकान्त-स्वरूप है एवं अंशग्राही नय की अपेक्षा वस्तु एकान्तरूप सिद्ध है।" 5. आचार्य अकलंक-देव ने राजवर्तिक अध्याय 1 सूत्र 6 की टीका में वृक्ष के उदाहरण से सर्वथा-अनेकान्त और सर्वथा-एकान्त का खंडन किया है जिसका भाव निम्नानुसार है। शाखा, पत्ते, पुष्प आदि अनेक अंगों का समूहरूप वृक्ष अनेकान्तरूप है तथा शाखा, पत्ते, पुष्प आदि अंग एकान्तरूप हैं। जिसप्रकार शाखा आदि अंगों का सर्वथा अभाव मानने पर उनके समुदायरूप वृक्ष के अभाव का भी प्रसंग आएगा; उसीप्रकार सम्यक्-एकान्त का निषेध करने पर सम्यक्-अनेकान्त के अभाव का भी प्रसंग आएगा। जिसप्रकार यदि शाखा आदि किसी एक अंग का ही एकान्त स्वीकार किया जाए तो उसके अविनाभावी अन्य अंगों का भी लोप होने से सर्वलोप का प्रसंग आएगा इसीप्रकार वस्तु के एक धर्म को ही सर्वथा स्वीकार किया जाए, तो अन्य अंगों का लोप होने से वस्तु के सर्वथा अभाव का प्रसंग आएगा। इसीप्रकार यदि सम्यक्-अनेकान्तरूप वृक्ष का निषेध किया जाए तो उसके शाखा आदि अंगों अर्थात् सम्यक्-एकान्त के भी अभाव क' प्रसंग आएगा। और यदि सर्वथा वृक्ष Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003169
Book TitleKrambaddha Paryaya Nirdeshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy