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क्रमबद्धपर्याय: निर्देशिका
2. स्वकर्तृत्व, सहज कर्तृत्व, और अकर्तृत्व - इन तीनों का एक ही
अर्थ है।
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अपनी पर्यायों का कर्ता होना स्वकर्तृत्व है।
सहज कर्त्तृत्व :- पर के सहयोग की अपेक्षा तथा परिणमन की चिन्ता किए बिना अपने आप अपने स्वकाल में पर्यायें उत्पन्न होना सहज कर्तृत्व है ।
स्वकर्तृत्व :
:
अकर्त्तत्व :
पर-पदार्थों में तन्मय न होना तथा अपनी पर्यायों के क्रम में परिवर्तन की बुद्धि न करके उनका सहज ज्ञाता-दृष्टा रहना अकर्तृत्व है ।
पर्यायें अपने सुनिश्चित क्रमानुसार उत्पन्न होती हैं, इसका आशय यह नहीं है कि वे द्रव्य के किए बिना हो जाती हैं। द्रव्य उस पर्यायरूप परिणमित होकर उनका कर्त्ता होता है। ज्ञानी अपने निर्मल परिणामों का कर्त्ता होता है तथा अज्ञानी अपने अज्ञानभाव का कर्त्ता है । इसप्रकार प्रत्येक द्रव्य स्वयं ही अपने क्रमबद्ध परिणामों का कर्ता है।
3. द्रव्य और पर्याय में कथञ्चित् भिन्नता की अपेक्षा द्रव्य को अपनी पर्यायों का भी अकर्त्ता तथा पर्याय का कर्त्ता पर्याय को ही कहा जाता है। इसका प्रयोजन भी पर्याय दृष्टि छुड़ाकर द्रव्य-दृष्टि कराना है । परन्तु यहाँ यह विवक्षा नहीं है ।
प्रश्न :
40. जैन-दर्शन में अकर्त्तावाद के मुख्य बिन्दु कौन - कौन से हैं?
41. स्वकर्तृत्व, सहज कर्तृत्व और अकर्तृत्व की परिभाषायें बताइये?
42.
आत्मा अपनी पर्यायों का कर्त्ता किस प्रकार है ?
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