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क्रमबद्धपर्याय : निर्देशिका कार्तिकेयानुप्रेक्षा गाथा 320-21-22 में इन्द्र भी पर में परिवर्तन नहीं कर सकते- ऐसा कहकर अल्पज्ञ और रागियों के पर-कर्तृत्व का निषेध किया गया है। अल्पज्ञ और रागियों में इन्द्र ही सर्वाधिक शक्तिशाली हैं, जब वह भी वस्तु के परिणमन को नहीं टाल सकते तो अन्य लोग कैसे टाल सकते हैं? प्रश्न :34. अज्ञानी स्वयं को पर-पदार्थों के परिणमन में फेरफार का कर्ता किस आधार पर
कहता है? 35. अज्ञानी की मान्यता गलत क्यों है? 36. वस्तु का परिणमन ज्ञान के आधीन क्यों नहीं है? 37. अल्पज्ञ और रागी भी वस्तु के परिणमन में परिवर्तन नहीं कर सकता - यह बात आचार्यदेव ने कहाँ लिखी है?
**** पर-पदार्थों के परिणमन की चिन्ता करना व्यर्थ है
गद्यांश 16 क्रमबद्ध पर्याय के पोषक.......
......जब तक अज्ञान है। (पृष्ठ 27 पैरा 6 से पृष्ठ 29 पैरा 1 तक) विचार बिन्दु :
1. एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कर्ता-हर्ता-धर्ता नहीं है-यह सिद्धान्त ही जैनदर्शन का मूल्य आधार है। ऐसी श्रद्धा होनाही क्रमबद्धपर्याय समझने का उद्देश्य है।
2. जिसप्रकार नित्यता वस्तु का स्वभाव है, उसीप्रकार परिणमन करना भी वस्तु का सहज स्वभाव है, इसलिए प्रत्येक द्रव्य अपनी पर्याय का कर्ता स्वयं है। अपने परिणमन के लिए उसे पर-द्रव्य के सहयोग की रञ्चमात्र भी आवश्यकता नहीं है, इसलिए हमें भी उसके बारे में चिन्ता करने की रञ्चमात्र भी आवश्यकता भी नहीं है। पर-द्रव्यों की बात तो ठीक है, हमें अपने परिणमन की चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं हैं। अजीव द्रव्य भी तो अपने या पर के परिणमन की चिन्ता
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