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________________ 31 क्रमबद्धपर्याय : एक अनुशीलन कारण। यदि वे पर-पदार्थों को तन्मय होकर जानने लगें तो वे स्वयं-दुखी एवं रागी-द्वेषी हो जायेंगे - यह महान दोष आएगा। ____ 2.स्वाश्रितो निश्चयः पराश्रितो व्यवहारः अर्थात् आत्माश्रित कथन निश्चय है और पराश्रित कथन व्यवहार है। केवली भगवान लोकालोक को जानते हैं, परन्तु उससे तन्मय नहीं होते इसलिए इसे व्यवहार कहा है। वे पर को जानते ही नहीं हैं-ऐसा आशय कदापि नहीं है। - 3. प्रवचनसार गाथा 19 की जयसेनाचार्य कृत टीका में केवली के समान ज्ञानी छद्मस्थों का भी पर को जानना व्यवहार से कहा गया है; अतः व्यवहार से जानने का अर्थ नहीं जानना लिया जाए तो ज्ञानियों द्वारा भी पर को जानना असत्य सिद्ध होगा जो कि प्रत्यक्ष विरुद्ध होगा। 4.विशेष स्पष्टीकरण :-केवली भगवान व्यवहारनय से लोकालोक को जानते हैं- इस कथन का वास्तविक आशय समझने के लिए नयों के स्वरूप पर विचार करना चाहिए। केवलज्ञान तो सकल प्रत्यक्ष ज्ञान है, अतः उसमें नय नहीं होते और लोकालोकतो ज्ञेय पदार्थ हैं, अतः उनमें भी नय नहीं होते? फिर केवली भगवान “व्यवहारनय से जानते हैं" यह कहना कैसे सम्भव है। वास्तव में व्यवहारनय केवलज्ञान या लोकालोक में नहीं है, अपितु हमारे श्रुतज्ञान में होता है। इसीप्रकार निश्चयनय भी केवलज्ञान या आत्मा में नहीं अपितु हमारे श्रुतज्ञान में होता है। ___ जब हम अपने श्रुतज्ञान में केवलज्ञान के स्वरूप का निर्णय इसप्रकार करते हैं कि वह लोकालोक को जानता है, तब लोकालोक के माध्यम से केवलज्ञान का निर्णय होने के कारण यह निर्णय पराश्रित होने से व्यवहारनय हुआ; तथा जब हम केवलज्ञान का निर्णय इसप्रकार करें कि वह अपने आत्मा को जानता है, तब यह निर्णय स्वाश्रित होने के कारण निश्चयनय हुआ।इसप्रकार श्रुतज्ञान में निश्चयनयव्यवहारनय होते हैं, केवलज्ञान या लोकालोक में नय नहीं होते। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003169
Book TitleKrambaddha Paryaya Nirdeshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size5 MB
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