SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 34
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 32 क्रमबद्धपर्याय : निर्देशिका . 'स्वाश्रित' और 'पराश्रित' का आशय :-निश्चयनय स्वाश्रित और व्यवहारनय पराश्रित कहा गया है। किसी भी व्यक्ति/पदार्थ का उसके स्वरूप से कथन/ज्ञान करना स्वाश्रित है तथा अन्य व्यक्ति/पदार्थ से उस व्यक्ति/पदार्थ का परिचय देना पराश्रित है। अतः स्वाश्रय या पराश्रय, पदार्थ का स्वरूप नहीं है, मात्र उसके निरूपण/ज्ञान का भेद है, इसलिए निश्चय/व्यवहारनय भी वाणी/ ज्ञान में होते हैं, पदार्थ में नहीं। 5. यहाँ स्वाश्रित और पराश्रित कथनों के कुछ प्रयोग दिए जा रहे हैं (अ) भगवान महावीर को वीतरागी और सर्वज्ञ कहना स्वाश्रित कथन है तथा त्रिशलानंदन आदि कहना पराश्रित कथन है। (ब) पूज्य गुरुदेव का उनके दृढ़ श्रद्धान, महान व्यक्तित्व आदि से परिचय देना, स्वाश्रित कथन है तथा उन्हें सोनगढ़ के सन्त, समयसार के प्रवक्ता आदि कहना पराश्रित कथन है। (स) आत्मा को ज्ञानस्वभावी कहना स्वाश्रित कथन है, तथा मनुष्य, देव आदि कहना पराश्रित कथन है। (द) शरीर को पुद्गल/जड़ कहना स्वाश्रित कथन है, तथा पञ्चेन्द्रिय जीव आदि कहना पराश्रित कथन है। (इ) मोक्षमार्गको वीतरागभावरूप कहनास्वाश्रित कथन है और शुभभावरूप कहना पराश्रित कथन है। ___6. वस्तु के अभेदरूप कथन को स्वाश्रित और गुण-पर्यायों के भेदरूप कथन को पराश्रित (सद्भूत-व्यवहार) भी कहा गया है। इसीप्रकार केवली भगवान परद्रव्यों में तन्मय नहीं होते, फिर भी उनको ज्ञान और लोकालोक में साथ ज्ञेय-ज्ञायक सम्बन्ध है - ऐसा कहना ही व्यवहारनय है, क्योंकि दो द्रव्यों में किसी भी प्रकार से सम्बन्ध स्थापित करना व्यवहार है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003169
Book TitleKrambaddha Paryaya Nirdeshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy