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क्रमबद्धपर्याय : निर्देशिका
प्रस्तुत लेख में डॉ. साहब ने उन्मुक्त हृदय से यह बात स्वीकार की है कि क्रमबद्धपर्याय समझने से ही उनके चिन्तन को सही दिशा मिली है, उससे उनका जीवन ही बदल गया है।
पूज्य स्वामीजी से भी डॉ. साहब का परिचय उनके क्रमबद्धपर्याय' विषय पर हुए प्रवचनों को पढ़कर हुआ। यह भी एक सुखद संयोग है कि डॉ. साहब की कृति धर्म के दशलक्षण' और क्रमबद्धपर्याय' से स्वामीजी भी विशेष प्रभावित हुए। उन्होंने अपने प्रवचनों में सैकड़ों बार इन कृतियों का उल्लेख करते हुए डॉ. साहब की खुलकर प्रशंसा की है।
सन् 1979 में बड़ौदा में आयोजित पञ्चकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव में रात्रि चर्चा के समय डॉ. साहब को मञ्च पर बुलाकर अपने पास बिठाते हुए स्वामीजी ने कहा - 'तुम यहाँ ऊपर ही बैठा करो।' फिर सभा को सम्बोधित करते हुए कहा – 'इसने क्रमबद्धपर्याय पुस्तक लिखकर समाज का बहुत उपकार किया है।'
इसमें सन्देह नहीं कि इस पुस्तक के प्रकाशन के बाद दिगम्बर समाज के अनेक विद्वान भी इस विषय पर गम्भीरता से विचार करने हेतु प्रेरित हुए।जोलोग इस सिद्धान्त से सहमत नहीं थे, उन्होंने भी इसके पक्ष में अपनी सहमति भेजी। __इसप्रकार इस युग में क्रमबद्धपर्याय सिद्धान्त कोडॉ. हुकमचन्दजी भारिल्ल के व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व से अलग नहीं देखा जा सकता। इसलिए इस लेख के माध्यम से डॉ. साहब के जीवन और चिंतन के अचर्चित बिन्दुओं को समझना अत्यंत आवश्यक है। इसमें हमें भी इस विषय को गहराई से समझने की प्रेरणा मिलेगी।"
विशेष निर्देश :- सम्पूर्ण लेख को 4-5 गद्यांशों में विभाजित करके एकएक गद्यांश का यथासंभव छात्र-पठन कराना चाहिए।
पठित गद्यांश में व्यक्त किए गए विचारों की सक्षेप में चर्चा करें तथा आवश्यकतानुसार प्रश्न भी पूछे । यहाँ प्रस्तुत लेख के गद्यांशों का संकेत करके उनमें प्रतिपादित विचार-बिन्दुओं का उल्लेख करते हुए प्रश्न दिये जा रहे हैं।
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