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सम्यक्चारित्र के लिए किए गए विपरीत प्रयत्नों के सन्दर्भ में ... जाता है कि मुनि-निन्दा की जा रही है; जबकि हमारा उद्देश्य आगम के आधार पर अभिप्राय की भूल का तात्त्विक विश्लेषण करना ही है। मुनि की निन्दा करने का तो प्रश्न ही नहीं उठता; क्योंकि चरणानुयोग में बाह्यक्रिया की प्रधानता होने से भावलिंग रहित द्रव्यलिंग भी वन्दनीय कहा गया है। वह मोक्षमार्गी है या नहीं ? यह द्रव्यानुयोग का प्रकरण है, चरणानुयोग का नहीं। हमारी मनोवृत्ति भी कुछ ऐसी हो गई है कि शास्त्रों में जहाँ भी द्रव्यलिंगी की चर्चा आती है, हमारा ध्यान दूसरों की ओर ही जाता है। जब हम छहढाला में निम्न पंक्तियाँ पढ़ते हैं :
मुनिव्रत धार अनन्त बार ग्रीवक उपजायो।
पै निज आतमज्ञान बिना सुख लेश न पायो॥ तब हमें ऐसा लगता है कि यह तो दूसरों की बात है, हम तो बहुत समझदार हैं, इसलिए हम मुनि नहीं हुए, जबकि हमारी यह धारणा स्पष्टतः आगम-विरुद्ध और आत्महित में बाधक है।
जरा विचार तो कीजिए कि उक्त पंक्तियों में मुनि-निन्दा या मुनि होने का निषेध है या आत्मज्ञान न होने की आलोचना की गई है। वास्तव में हमें इन पंक्तियों में दूसरों का वर्तमान देखने के बजाए अपना भूतकाल देखना चाहिए। पिछले अनन्तभवों में अनन्तबार आत्मज्ञान के बिना मुनिव्रत धारण करने पर भी हमें लेशमात्र भी सुख नहीं मिला। इन पंक्तियों में अज्ञान की निन्दा की गई है और अज्ञान सहित मुनिपद को व्यर्थ बताया गया है। जैन-शासन में तो शाश्वत वस्तु-व्यवस्था बताई गई है कि मुनि हुए बिना मुक्ति की साधना पूर्ण नहीं होती।
यदि हम सच्चे आत्मार्थी हैं तो हमें जिनागम में बताए गए प्रत्येक दोष को अपने ऊपर घटित करना चाहिए। दूसरों के दोष नहीं देखना चाहिए। दूसरों के दोष देखने की दूषित वृत्ति के कारण ही हम अनन्तबार समवसरण
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