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क्रिया, परिणाम और अभिप्राय : एक अनुशीलन परन्तु हम तो पण्डित टोडरमलजी के कथनानुसार सामान्य द्रव्यलिंगी का विवेचन कर रहे हैं। उन्होंने भी जिनवाणी के आधार पर लिखा है। यदि
आप उन पर प्रश्नचिन्ह लगाना उचित समझें तो यह आपके विवेक पर निर्भर है।
__ अभिप्राय की भूल निकल जाने पर अर्थात् सम्यग्दर्शन हो जाने पर प्रत्याख्यान कषाय के उदय में भी मन्दकषाय के निमित्त से अणुव्रत या महाव्रतरूप आचरण भी होता है। ऐसे जीव चतुर्थ गुणस्थानवर्ती द्रव्यलिंगी श्रावक या मुनि अथवा पञ्चम गुणस्थानवर्ती द्रव्यलिंगी मुनि कहलाते हैं। जिनकी अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानी और प्रत्याख्यानी कषायें नष्ट हो जाती हैं, उन्हें भावलिंग और द्रव्यलिंग दोनों होते हैं।
प्रश्न :- चतुर्थ गुणस्थानवर्ती सम्यग्दृष्टि को अपने परिणामों की शुद्धता और रागाँश का ख्याल तो रहता है, फिर वह छठवें-सातवें गुणस्थान योग्य परिणाम न होने पर भी वैसी क्रिया कैसे कर सकता है ? __उत्तर :- कदाचित् महामन्दकषाय में ऐसा सम्भव हो सकता है। पूज्य गुरुदेव के प्रवचनों में अनेक बार चतुर्थ और पञ्चम गुणस्थानवर्ती द्रव्यलिङ्गी की चर्चा आती है। यदि कोई जीव ग्यारहवें आदि गुणस्थान से गिरकर पाँचवे या चौथे गुणस्थान में आ जाए तो वह पञ्चम या चतुर्थ गुणस्थानवर्ती द्रव्यलिङ्गी ही कहा जाएगा। अतः ऊपर के गुणस्थान से गिरने पर यह स्थिति होना सहज सम्भव है।
यहाँ हमें अभिप्राय की भूल समझना है, इसलिए प्रथम गुणस्थानवर्ती अर्थात् द्रव्यलिंगी मिथ्यादृष्टि मुनि की चर्चा की जाएगी। वर्तमान वातावरण कुछ ऐसा विचित्र है कि द्रव्यलिंगी का नाम लेते ही लोगों को ऐसा भ्रम हो 1. आगम दर्शन धरियावद से 1996 में प्रकाशित एवं नीरज जैन सतना द्वारा सम्पादित मोक्षमार्ग प्रकाश्क पृष्ठ 179-180 पर त्रिलोकसार, धवला आदि के आधार पर पहले से पाँचवे गुणस्थानवर्ती द्रव्यलिंगी मुनियों का उल्लेख किया गया है।
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