________________
सम्यक्चारित्र के लिए किए गए विपरीत प्रयत्नों के सन्दर्भ में
उक्त गद्याँश में ‘कुलक्रम से अथवा देखा-देखी' शब्द के द्वारा अभिप्राय की ओर तथा 'आचरण करते हैं'- ऐसा कहकर धर्म - क्रिया की ओर संकेत किया गया है। ऐसे जीव धर्माचरण करते हैं अर्थात् चारित्र कही जाने वाली क्रिया तो करते हैं, परन्तु उन्हें अज्ञान और कषाय विद्यमान है। अज्ञान अर्थात् विपरीत अभिप्राय और कषाय अर्थात् विपरीत परिणाम होने से क्रिया होने पर भी उन्हें चारित्र नहीं होता ।
ऐसे लोग मात्र क्रिया के आग्रही होने से जैसे-तैसे क्रिया की प्रतिज्ञा पूरी करना चाहते हैं और उनके परिणाम दुःखी हो जाते हैं। जैसे- कोई जीव उपवास की प्रतिज्ञा करता है । प्रतिज्ञा का निर्वाह करते हुए उसके कैसे-कैसे परिणाम होते हैं - इसका चित्रण करते हुए पण्डितजी लिखते हैं :
71
"कितने ही जीव पहले तो बड़ी प्रतिज्ञा धारण कर बैठते हैं; परन्तु अन्तरंग में विषय- कषाय वासना मिटी नहीं है, इसलिए जैसे-तैसे प्रतिज्ञा पूरी करना चाहते हैं । वहाँ उस प्रतिज्ञा से परिणाम दुःखी होते हैं । जैसेकोई बहुत उपवास कर बैठता है और पश्चात् पीड़ा से दुःखी हुआ रोगी की भाँति काल गँवाता है, धर्म-साधन नहीं करता; तो प्रथम ही सधती जाने उतनी ही प्रतिज्ञा क्यों न ले ? दुःखी होने में आर्तध्यान हो, उसका फल अच्छा कैसे लगेगा " ?
ऐसे लोग अपनी पीड़ा दूर करने के लिए विषय-पोषण के अनेक उपाय करते हैं। जैसे- प्यास लगने पर पानी नहीं पियेंगे, परन्तु बर्फ की पट्टी रखेंगे। भोजन में घी नहीं खायेंगे तो दूसरे चिकने पदार्थों का सेवन करेंगे। उन लोगों की दशा यहाँ तक हो जाती है कि एक धर्म - क्रिया की पूर्ति के लिए वे दूसरी पाप-क्रियायें भी करने लगते हैं । पडिण्तजी ने निम्न पंक्तियों में उनका मार्मिक चित्रण करते हुए लिखा है
"अथवा प्रतिज्ञा में दुःख हो तब परिणाम लगाने के लिए कोई आलम्बन विचारता है । जैसे- उपवास करके फिर क्रीड़ा करता है,
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org