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क्रिया, परिणाम और अभिप्राय : एक अनुशीलन श्रद्धानरूप सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान होने पर ही सम्यक्चारित्र होता है और उसकी पूर्णता होने पर ही मुक्ति होती है।
पण्डित टोडरमलजी ने सम्यक्चारित्र के लिए व्यवहाराभासियों द्वारा किए गए प्रयत्नों में विपरीतता का वर्णन करते हुए निम्न दो प्रकार की परिस्थितियों का चित्रण किया है :
(अ) जब क्रिया तो सम्यक्चारित्र जैसी हो, परन्तु परिणामों में विषय-कषाय का सद्भाव हो अर्थात् शुभभाव भी न हों, तथा अभिप्राय में भी विपरीतता हो।
(ब) जब क्रिया तो शास्त्रोक्त हो अर्थात् अणुव्रत-महाव्रतादिक का निर्दोष पालन हो और परिणाम भी उस क्रिया के अनुरूप महामन्दकषायरूप हों; परन्तु अभिप्राय में परद्रव्यों में एकत्वबुद्धि, ममत्वबुद्धि, कर्तृत्वबुद्धि, भोक्तृत्वबुद्धि तथा विषयों में सुखबुद्धि हो। __यहाँ उक्त दोनों परिस्थितियों का विश्लेषण सातवें अधिकार के व्यवहाराभासी प्रकरण में किए गए “सम्यक्चारित्र के अन्यथा स्वरूप" के विवेचन के आधार पर किया जा रहा है।
परिणामों और अभिप्राय की विपरीतता यहाँ परिणामों की विपरीतता से आशय क्रिया में होने वाले शुभाचरण से विपरीत अज्ञान और कषायरूप परिणामों से है। इस परिस्थिति का चित्रण करते हुए पण्डितजी पृष्ठ 238 पर लिखते हैं :
__ "वहाँ कितने ही जीव तो कुलक्रम से अथवा देखा-देखी या क्रोध, मान, माया, लोभादिक से आचरण करते हैं; उनके तो धर्मबुद्धि ही नहीं है,सम्यक्चारित्र कहाँ से हो ? उन जीवों में कोई तो भोले हैं व कोई कषायी हैं; सो अज्ञानभाव व कषाय होने पर सम्यक्चारित्र नहीं होता"
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