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________________ क्रिया, परिणाम और अभिप्राय का जीवन पर प्रभाव इस भवतरु का मूल इक, जानहु मिथ्याभाव I ताको करि निर्मूल अब, करिए मोक्ष उपाव ॥ अध्याय-7 सातवें अधिकार के मंगलाचरण में मिथ्यात्व को संसारवृक्ष की जड़ कहा गया है। वृक्ष के पत्ते फल-फूल, शाखायें आदि सभी अंग दिखते हैं; परन्तु जड़ नहीं दिखती, क्योंकि वह जमीन के भीतर रहती है। जड़ न दिखने पर भी सम्पूर्ण वृक्ष का आधार वही है । उसी के द्वारा वृक्ष खुराक लेकर जीवित रहता है । इसीप्रकार बाह्य अनुकूल-प्रतिकूल संयोग संसाररूपी वृक्ष के पत्ते तथा फल-फूल आदि के समान हैं, शुभाशुभभाव उसकी शाखायें हैं और मिथ्यात्व उसकी जड़ है। बाह्य संयोग तो जगत को दिखते हैं, क्रिया के माध्यम से शुभाशुभ परिणाम भी समझ में आ जाते हैं, परन्तु मिथ्यात्व नहीं दिखता। जगत इससे बिल्कुल अपरिचित है । यह तो जैनदर्शन की सर्वाधिक महत्वपूर्ण विशेषता है कि वह मिथ्यात्व को संसार का मूल कारण तथा सम्यक्त्व को मोक्ष एवं मोक्षमार्ग का कारण कहता है। 47 हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, और परिग्रह - इन पांच पापों से तथा इनके अनिष्ट फल से जगत के अधिकांश लोग परिचित हैं और इन्हें बुरा जानकर छोड़ना भी चाहते हैं । अन्य धर्मों में भी इन्हें बुरा बताया गया है, परन्तु जैनदर्शन के अतिरिक्त अन्य किसी दर्शन में मिथ्यात्व के बारे में ऐसा गहन चिन्तन नहीं मिलता। हिंसा आदि पाँच पाप डाकू के समान हैं। जिसप्रकार एक डाकू को देखकर बच्चा भी डर जाता है और जान बचाने का प्रयत्न करता है, क्योंकि वह उसकी वेशभूषा तथा आवाज आदि से पहचान लेता है कि यह डाकू है और मुझे इससे बचना चाहिए। उसीप्रकार जनसामान्य भी हिंसा आदि पाँचों पापों से डरते हैं, उन्हें बुरा जानकर छोड़ने का प्रयत्न भी करते हैं; परन्तु मिथ्यात्व तो डाकू नहीं बल्कि ठग है। डाकू खुले आम चेतावनी देकर लूटता है, जबकि ठग मीठा-मीठा बोलकर अपना हितैषी बनकर लूटता है, For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003168
Book TitleKriya Parinam aur Abhipray
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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