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क्रिया, परिणाम और अभिप्राय : एक अनुशालन
जिसे छल करना है उससे कैसी भी भाषा बोलें वह उल्टा अर्थ ही निकालेगा। यदि यह कहा जाए कि ‘पापभाव छोड़ो' तो भी वह पापक्रिया करेगा और यह कहेगा कि हम भाव नहीं कर रहे हैं और क्रिया करने का निषेध तो है नहीं' अतः व्यवहार की भाषा में ही परमार्थ समझाया जाता है, अर्थात् क्रिया के माध्यम से ही परिणामों की चर्चा की जाती है। ___ जीव अपने अभिप्राय और परिणामों का फल भोगता है, अतः अभिप्राय और परिणाम सम्यक् हों, ऐसा प्रयत्न अवश्य करना चाहिए - यही परमार्थ है।
तीर्थंकर भगवन्तों की दिव्य-देशना, निर्ग्रन्थ सन्तों द्वारा रचित वाङ्गमय एवं उन्हीं की परम्परा में हुए सैकड़ों ज्ञानी विद्वानों ने मिथ्यात्व को ही संसार का मूल कारण प्रतिपादित करते हुए स्पष्ट घोषणा की है कि अभिप्राय की विपरीतता का नाश हुए बिना अर्थात् सम्यग्दर्शन प्रगट किए बिना, धर्म का अर्थात् मुक्ति के मार्ग का प्रारम्भ ही नहीं होता। पण्डित टोडरमलजी ने मोक्षमार्ग प्रकाशक चौथे से सातवें अधिकार तक मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्र का निरूपण करके अभिप्राय की भूल का विस्तृत विवेचन किया है। इन चारों अधिकारों में उन्होंने मिथ्यात्व के विरुद्ध सशक्त क्रान्ति का बिगुल बजाया है; जिसकी झलक इन चारों अधिकारों के मंगलाचरण में ही मिल जाती है। यहाँ क्रमश:वे मंगलाचरण दिए जा रहे हैं। इनमें मिथ्यादर्शनज्ञान-चारित्र के लिए मिथ्याभाव शब्द का प्रयोग किया गया है।
इस भव के सब दुःखनि के, कारण मिथ्याभाव । तिनकी सत्ता नाश करि, प्रगटै मोक्ष उपाव । अध्याय-4 बहुविधि मिथ्यामतनि करि, मलिन भयो निज भाव। ताको होत अभाव है, सहजरूप दरसाव ॥ अध्याय-5 मिथ्या देवादिक भजें, हो है मिथ्याभाव । तज तिनकों साँचे भजो, यह हित-हेत-उपाव ॥ अध्याय-6
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