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क्रिया, परिणाम और अभिप्राय में उत्तरोत्तर सूक्ष्मता
पूजन-विधान कराते समय यदि विधानचार्य दीप की जगह धूप का छन्द बोल दें, तो जनता तुरन्त टोक देती है। प्रवचन में यदि एक शब्द का भी अनुचित प्रयोग हो जाए तो तत्काल उसकी प्रतिक्रिया सामने आ जाती
न केवल बुरे कामों का बल्कि अच्छे कामों का प्रभाव भी जनसामान्य पर पड़ता है। पाँचों पापों के त्यागी मुनिराजों के जीवन से हमें भी तप, त्याग व संयम की प्रेरणा मिलती है। जगत उनके चरणों में नत-मस्तक रहता है। यदि कोई रिक्शेवाला किसी के भूले हुए पर्स को थाने में जमा करा दे या उसके मालिक तक पहुँचा दे तो अखबारों में 'ईमानदारी अभी शेष है' शीर्षक से उसकी प्रशंसा छपती है। इसी प्रकार यदि साम्प्रदायिक दंगों के समय एक सम्प्रदाय का व्यक्ति दूसरे सम्प्रदाय के व्यक्ति की रक्षा करे तो उसकी मानवीयता के गीत भी सूचना माध्यमों में गाए जाते हैं।
इसप्रकार बाह्य-क्रिया अत्यन्त स्थूल होने से क्रिया के स्तर पर होने वाली भूल भी सबको दिखती है। यदि यह कहा जाए कि जगत मात्र क्रियाओं को ही देखता है, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। यहाँ क्रिया की चर्चा करते समय शरीरादि पर-पदार्थों की क्रियाओं को जीव की कहा गया है; परन्तु यह कथन असद्भूत-व्यवहारनय की अपेक्षा ही समझना चाहिए। वास्तव में आत्मा इन क्रियाओं का कर्ता नहीं है। आत्मा के रागादि भावों के निमित्त से ये क्रियायें होती हैं । इसलिए आत्मा को व्यवहारनय से इनका कर्ता कहा जाता है।
परिणामों की सूक्ष्मता-स्थूलता :- क्रिया की अपेक्षा परिणाम बहुत सूक्ष्म होते हैं। वे दूसरों की पकड़ में सीधे तो आते ही नहीं, बल्कि क्रिया के माध्यम से ही जाने जाते हैं। क्रिया व्यक्त होती है और परिणाम अव्यक्त होते हैं । इसलिए परिणामों की जानकारी जगत को तभी होती है, जब वे क्रिया के माध्यम से व्यक्त हों अर्थात् उनके निमित्त से क्रिया भी वैसी हो, जैसे परिणाम हुए हैं।
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