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क्रिया, परिणाम और अभिप्राय का जीवन में स्थान
व्यसनादि क्रियायें करने वाले इन्हें छिपाकर ही करते हैं, तथा ये क्रियायें किसी और को मालूम न पड़ें, इसके लिए प्रयत्नशील भी रहते हैं, अर्थात् ऐसी क्रियाओं को ढाँकने वाला पर्दा बन्द ही रखा जाता है।
यह समाज का दुर्भाग्य ही है कि पाश्चात्य सभ्यता के दुष्प्रभाव से सर्वथा त्याज्य क्रियायें भी आज सार्वजनिकरूप से खुलकर की जाने लगी हैं। खुलेपन के नाम पर होने वाली अमर्यादित क्रियायें तथा टी.वी. पर दिखाए जाने वाले विज्ञापन और फिल्में इसका प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। फिर भी ये सामाजिक स्तर पर स्वीकार्य नहीं हो पातीं। समाज में इनकी निन्दा ही होती है।
कुछ क्रियायें ऐसी भी होती हैं जिन्हें करने से लोक में यश मिलता है, पुरस्कार एवं अभिनन्दन पत्र आदि भी मिलते हैं। दया, दान, शील, भक्ति, पूजा, व्रत, उपवास आदि धार्मिक क्रियायें तथा सार्वजनिक हित की अनेक क्रियायें ऐसी ही होती हैं । इन कार्यों को करने वाले, इन्हें ढाँकने वाला पर्दा खुला रखते हैं, इनका अधिक से अधिक प्रचार करते हैं। स्वयं प्रचार करने में संकोच हो तो दूसरों से कहकर कराते हैं ।
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इस प्रकार सभी उक्त क्रियाओं को यदि पुण्यक्रिया और पापक्रियाओं में बाँटा जाए, तो यही कहा जाएगा कि हम क्रिया वाला पर्दा आधा खुला रखना चाहते हैं और आधा बन्द रखना चाहते हैं ।
(2) परिणामरूपी पर्दा :
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जिस प्रकार नाटक में पहला पर्दा खोलकर कोई दृश्य दिखाया जा रहा हो और उसके पीछे दूसरे दृश्य की तैयारी की जा रही हो तो वह तैयारी जनता को नहीं दिखती, परन्तु कार्यकर्ता तो उसे देखते ही हैं। उसी प्रकार क्रिया के पर्दे के पीछे जीवन में परिणामरूपी परदा होता है । यद्यपि पहले पर्दे पर होने से क्रिया सबको दिखती है, तथापि परिणामों का पर्दा दूसरों को
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