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सम्यक्चारित्र के लिए किए गए विपरीत प्रयत्नों के सन्दर्भ में ...
परम्परा का सूक्ष्म निरीक्षण करके अपने अभिप्राय को भी यथासम्भव जान सकते हैं हमारे सुख-दुःख का सम्बन्ध भी अभिप्राय और परिणामों से है; अतः अपने अभिप्राय की भूल तुरन्त दूर करना चाहिए ।
प्रश्न :- दूसरों का मूल्यांकन उनकी बाह्य क्रिया से करना चाहिएइस कथन का आशय क्या है ? क्या क्रिया मात्र से उसे पापी या धर्मात्मा मान लिया जाए ?
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उत्तर :- बाह्य क्रिया में पाप-पुण्य या धर्म नहीं है, अतः क्रिया मात्र से किसी को पापी या धर्मात्मा मानने का प्रश्न नहीं है, परन्तु मानना न मानना अलग बात है और उसके साथ प्रेम विनय सम्मान आदि का व्यवहार अलग बात है। वह तो उसकी सत् क्रियाओं के आधार पर ही सम्भव है । इसीप्रकार लोक-निन्द्य पाप क्रियाओं के आधार पर ही किसी की उपेक्षा या उसे सदुपदेश देने का व्यवहार होता है। शुभ क्रियाओं की प्रशंसा, अनुमोदना, प्रोत्साहन आदि करना तथा अशुभ क्रियाओं की निन्दा करना - यही क्रिया के आधार पर दूसरों का मूलयांकन है।
प्रश्न :- क्रिया परिणाम और अभिप्राय में पहले कौन सुधरता है ?
उत्तर :- यह दूसरे अध्याय में ही कहा जा चुका है कि क्रिया, परिणाम और अभिप्राय का यह क्रम तो स्थूलता और सूक्ष्मता की अपेक्षा रखा गया है । सुधार की अपेक्षा विचार किया जाए तो अभिप्राय सुधरे बिना परिणाम और क्रिया नहीं सुधरते, क्योंकि सम्यग्दर्शन के बिना सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र नहीं होता। अतः पहले अभिप्राय सुधरता है फिर परिणाम और क्रिया सुधरते हैं ? अतः सुधार की अपेक्षा अभिप्राय, परिणाम और क्रिया - यह क्रम समझना चाहिए।
प्रश्नः - अभिप्राय की भूल बताते समय तो यही कहा गया है कि द्रव्यलिंगी मुनि की क्रिया और परिणाम तो सुधर गए हैं, परन्तु अभिप्राय
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