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चक्षुष्मान् !
संक्लिश्यमान भावधारा शरीर की रासायनिक व्यवस्था पर विध्वंसक प्रभाव डालती है। मनोविज्ञान की भाषा में वह भावधारा नकारात्मक भाव है। यदि नकारात्मक भाव शरीर की रासायनिक व्यवस्था को अस्त-व्यस्त कर देते हैं तो क्या विशुद्धयमान भावधारा अथवा सकारात्मक भाव रोगहर नहीं हो सकते ? ।
यदि प्रतिकूल संवेग (नकारात्मक भाव) शरीर की भीतरी रक्षा-पंक्ति को तोड़ने के निमित्त बनते हैं तो क्या अनुकूल संवेग (विधायक भाव) उसे सुदृढ़ नहीं बना सकते ? क्रोध और चिंता के भाव प्रबल बनते हैं तब हरपीज (Herpes) सिम्पलैक्स वायरस (Simplex Virus) रोग-प्रतिरोध-प्रणाली को छिन्न-भिन्न कर देते हैं तो क्या क्षमा, मैत्री और चिंता-मुक्त मनोभाव रोग प्रतिरोध की क्षमता को विकसित नहीं कर सकते ?
रोग-प्रतिरोध-प्रणाली के कमजोर होने पर ही विषाणु और जीवाणु आक्रमण कर पाते हैं । उसे कमजोर बनाने में प्रतिकूल संवेगों अथवा संक्लिश्यमान भावधारा का प्रमुख हाथ है।।
शारीरिक स्वास्थ्य के संदर्भ में भी अप्रशस्त और प्रशस्त लेश्या का मूल्यांकन करो। प्रशस्त लेश्या की दिशा में अपने आप गति होगी।
शारीरिक स्वास्थ्य और भावधारा में घनिष्ठ सम्बन्ध है। इसकी व्याख्या केवल धर्मशास्त्र ही नहीं कर रहे हैं, विज्ञान भी
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