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चक्षुष्मान् !
आनन्द जीवन का वह छंद है, जिसकी स्वच्छंदता से आदमी दिव्य अनुभूति में चला जाता है। तुम खोज करो उस स्रोत की, जहां से आनन्द का निर्भर गतिशील हो रहा है । हृदय का परिपार्श्व बहुत चमत्कारिक है। तीर्थंकर की प्रतिमा के हृदय-देश में जो स्वस्तिक का चिह्न है, वह उसी की अभिव्यक्ति है ।
वासुदेव कृष्ण ने कहा अर्जुन ! में हृदय-देश में रहता हूं।
हृदय-देश आत्मा का वह स्थान है, जहां आत्मा का अविरल प्रवाह है । यह बाह्य ग्रन्थि का स्थान है। हठयोग की भाषा में अनाहत चक्र का स्थान है। प्रेक्षाध्यान में इसकी पहचान आनन्द केन्द्र से होती
__ इस प्रदेश पर ध्यान करो, सहज ही आनन्द स्फुरित होने लगेगा। यह आनन्द पदार्थ-सापेक्ष नहीं है, किसी वांछित वस्तु की उपलब्धि से होने वाला नहीं है। यह आंतरिक आनन्द है, जो शरीर के रसायनों तथा चेतना के योग से निष्पन्न होता है।
आनन्द केन्द्र पर मन को एकाग्र करो। श्वास मंद और विचार शान्त । विचार या विकल्प आए तो उन्हें द्रष्टाभाव से देख लो। न उन्हें रोकने का यत्न करो और न उनमें उलझो । जागरूकता रहे और विचार की प्रेक्षा चले। इस क्रम में एकाग्रता सघन हो जाएगी।
__ जीवन में अनेक समस्याएं, अनेक परिस्थितियां आती हैं। उन्हें झेलने की क्षमता विकसित करना परम पुरुषार्थ है । आनन्द केन्द्र की सक्रियता में वह पुरुषार्थ प्रकट होता है । विषम परिस्थिति दुःख से
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