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समण दीक्षा : एक परिचय ३७
जिसमें सभी धर्मों के संन्यासी आमंत्रित होते हैं । जैनमुनि तत्काल वहां पहुंच नहीं सकते। उस स्थिति में समण श्रेणी का उपयोग सहजरूप से हुआ है एवं हो सकता है ।
देश भर में बिखरे दो-दो, चार-चार तेरापंथ परिवारों की संभाल साधु-साध्वियों के लिए एक दुरूह कार्य है पर समणश्रेणी आसानी से इसे सम्पादित कर सकती हैं।
विदेशों में हजारों-लाखों भारतीय जैन लोग प्रवासित हैं। अनेक विदेशी व्यक्ति भी जैनधर्म-दर्शन, जैन साधुओं की जीवन-शैली को जानने तथा सुखी जीवन के सूत्रों की खोज में लगे हुए हैं। साधु-साध्वियां अपने स्वीकृत नियमों की सीमा में रहते हुए विदेश नहीं जा सकते। इस दिशा में समण - श्रेणी की उपयोगिता स्वतः सिद्ध है । समण - समणी महावीर के सिद्धान्तों के प्रति प्रवासित भारतीय जैन लोगों की आस्था के स्थिरीकरण में तथा वहां के मूल निवासियों को जैनधर्म तथा जीने की कला का बोध देने के लिए विदेश की धरती पर जा सकते हैं । सही निर्णय
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समणश्रेणी का प्रारम्भ हुआ उसके कुछ समय पश्चात् ही नेपाल की धरती पर विश्व हिन्दू सम्मेलन का विराट् आयोजन होने वाला था । उस सम्मेलन में सभी धर्मों के संन्यासी ही आमंत्रित थे । इस सम्मेलन में अपनी पावन उपस्थिति देने के लिए गणाधिपति तुलसी को भी आमंत्रित किया गया। मुनिचर्या के स्वीकृत नियमों के कारण वे वहां पहुंच नहीं सकते थे । अतः समणियों को भेजने का निर्णय लिया गया । गुरुदेव तुलसी के प्रतिनिधि के रूप में समणीवृन्द ने वहां एक प्रशंस्य भूमिका निभाई। यह अवसर समण श्रेणी की स्थापना के औचित्य को उजागर करने का सुनहरा दिन बना । समण-समणी को जैनमुनि तथा गुरुदेव तुलसी के प्रतिनिधि के रूप में देश-विदेश में जाने का अवसर मिलता रहा है ।
यात्रा का उद्देश्य
समणश्रेणी की यात्रा का उद्देश्य न राजनीति के साथ जुड़ा है और न किसी भौतिक, आर्थिक लाभ के साथ ही । इसका विशुद्ध उद्देश्य है- जैनधर्म, अणुव्रत, प्रेक्षाध्यान, जीवन-विज्ञान को जन-जन तक पहुंचाना तथा तेरापंथी
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