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समण दीक्षा : एक परिचय ३३
इससे समणश्रेणी के विकास में नई चेतना स्फुरित हुई है।
(अध्यापन) प्राचीन शिक्षा पद्धति में अध्यापन का दायित्व धर्मगुरुओं पर होता था। गुरुकुल परम्परा चलती थी। धर्म, अर्थ, काम, और मोक्ष की संतुलित शिक्षा दी जाती थी। विद्यार्थी वर्षों तक धर्मगुरुओं के पास रहकर शिक्षा ग्रहण करते थे। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में ये सारे मानदण्ड बदल गए हैं। न धर्मगुरुओं के पास अध्यापन का कार्य रहा और न गुरुकुल परम्परा ही। शिक्षा के उद्देश्य बदले, विषय बदले, व्यवस्थाएं भी बदल गईं। न शिक्षक रहे, न शिक्षार्थी। आज दोनों के संबंधों में कोई तालमेल नहीं रहा। उस मृतप्राय संस्कृति को पुनर्जीवित करने के लिए समणश्रेणी को अध्यापन कार्य में नियोजित किया गया।
समण श्रेणी का अध्यापन कार्य जीविका से नहीं, जीवन से जुड़ा है। केवल शिक्षा से नहीं, सृजन से जुड़ा है। समणश्रेणी शिक्षण के क्षेत्र में अपनी मुक्त सेवाएं देकर प्राचीन संस्कृति को फिर से प्रतिष्ठित करने का लघुप्रयास कर रही है। इस श्रेणी के सामने अध्यापन के तीन स्तर हैं-प्राथमिक स्कूल, महाविद्यालय और विश्वविद्यालय। प्राथमिक स्कूल
शिक्षा का प्रथम पड़ाव है-प्राथमिक शिक्षा । यह जीवन का ऐसा काल है, जिसके दौरान बालक में ससंस्कारों का वपन किया जा सकता है। यदि प्रारम्भिक शिक्षा की ओर विशेष ध्यान दिया जाता है तो आगे का मार्ग स्वतः प्रशस्त हो जाता है। विमल विद्या विहार (तुलसीग्राम, जैनविश्व भारती, लाडनूं) एस.टी.बी.ए. (गंगाशहर), स्टील प्लान्ट, (बोकारो) की स्कूलें आदि ऐसे शिक्षण संस्थान हैं, जहां बालकों को पाठ्यक्रम के साथ-साथ जीवन विज्ञान का प्रशिक्षण भी दिया जाता है। समण/समणीवृन्द समय-समय पर इन स्कूलों में पहुंचते हैं। विधार्थियों को प्रशिक्षण देते हैं। अच्छा जीवन जीने की प्रेरणा देते हैं। जीवन विज्ञान के निर्धारित पाठ्यक्रम का अध्यापन भी करवाते हैं। महाविद्यालय
राजस्थान में जैन दर्शन, जीवन विज्ञान का पाठ्यक्रम कॉलेज स्तर पर
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