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समण दीक्षा : एक परिचय २६
ध्यान, तप, जप आदि प्रयोग साधक की आन्तरिक पवित्रता में निमित्त बनते हैं । ये जितने-जितने पुष्ट होते हैं, चेतना का ऊर्ध्वारोहण उतना उतना अधिक होता है । अपनी रुचि के अनुसार ध्यान आदि के विशेष प्रयोग समण श्रेणी में चलते रहते हैं । विभिन्न प्रकार के ध्यान के प्रयोगों से शारीरिक तथा मानसिक स्वास्थ्य की रक्षा होती है। मंत्रादि के जप से आन्तरिक शक्तियों का जागरण होता है । तप के प्रयोगों से आन्तरिक मलिनता दूर होती है। अनुप्रेक्षा के द्वारा वृत्तियों का शोधन होता है । इन्हीं उद्देश्यों को सामने रखकर समणीवृन्द द्वारा ये सब प्रयोग व्यक्तिगतस्तर पर संकल्पपूर्वक किये जाते हैं ।
नया परिवेश : नई भूमिका
समणश्रेणी में दीक्षित होते ही उनके व्यवहार, आचार-विचार के निर्माण का विशेष प्रयत्न किया जाता है, जिसमें स्वभाव निर्माण की अनुप्रेक्षाएं, संकल्प शक्ति के प्रयोग, विशेष प्रकार के आसन-प्राणायाम आदि करवाये जाते हैं। बाह्य-विकास के साथ-साथ आन्तरिक विकास के प्रयोग समानान्तर चलते हैं ।
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