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दीक्षा
समण दीक्षा संन्यस्त जीवन का एक प्रयोग है। भगवान् महावीर ने दो प्रकार के धर्मों का प्रतिपादन किया-अगार धर्म और अनगार धर्म श्रावक धर्म और मुनिधर्म। अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह (पंच आचार) का पूर्णतः यावज्जीवन पालन करना अनगार धर्म है। इन नियमों का पूर्णरूप से नहीं किन्तु एक सीमा तक पालन करना अगार धर्म है। इसे गृहस्थ धर्म भी कहते हैं। समण दीक्षा न मुनिधर्म की चर्यागत कठोरता से आबद्ध है न गृहस्थ जीवन की तरह सर्वथा स्वतंत्र । गृहस्थ और मुनि जीवन के बीच एक सेतु है-समण दीक्षा । यह महाव्रत और अणुव्रत की मध्यवर्ती साधना है। इस दीक्षा में दो, तीन, या पांच महाव्रत नहीं, बल्कि अहिंसा, सत्व आदि पांच व्रत ग्रहण किये जाते हैं। यात्रा के लिए वाहन का प्रयोग तथा औद्देशिक आहार करना इनके लिए वैकल्पिक विधान है।
समण दीक्षा के दो रूप हैं-सावधिक समण दीक्षा और यावज्जीवन समण दीक्षा। सावधिक दीक्षा
सावधिक का अर्थ है-अवधि सहित। कोई साधक जीवन भर संन्यास मार्ग नहीं अपना सकता और वह संन्यस्त जीवन का अनुभव भी करना चाहता है तो समण बन सकता है एक वर्ष के लिए, दो, तीन या पांच वर्ष के लिए। मुनि दीक्षा में सावधिक दीक्षा का विकल्प नहीं हैं।
इस वैकल्पिक प्रावधान के पीछे दो दृष्टियां रही हैं१. जैन दर्शन पर अनुसंधान करने वालों को प्रायोगिक शिक्षण मिल
सके।
२. साधक जीवन से प्रशिक्षित होकर अपने गृहस्थ जीवन को अच्छा
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