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________________ (6) से प्रभावित होकर अयोध्या संस्कृत कार्यालय के मनीषीमंडल ने जिसमें हिंदू धर्मानुयायी जगद्गुरु आदि भी सम्मिलित थे आप श्री को "न्यायमनीषी" पदवी से सम्मानित किया । आप समाज के वयोवृद्ध कार्यकर्ता हैं । वयोवृद्ध होते हुए भी आपका उत्साह और पुरुषार्थ युवा जैसा है । सादा जीवन, कर्मठ वृत्ति, श्रमनिष्ठा के साक्षात् प्रतीक हैं । दृढ़ प्रतिज्ञ हैं । धर्म श्रद्धालु व जैनधर्म के प्रचारकों के प्रेरणा स्रोत होने से जैन समाज के सभी संप्रदायों के कई प्राचार्यो मुनियों और श्रावक-श्राविकाओं से आपका अच्छा परिचय है । आपकी शास्त्र प्रवचन पद्धति अत्यन्त रोचक और प्रभावोत्पादक है, शिक्षण देने की शैली अत्यन्त प्रशंसनीय हैं । वक्तृत्व कला श्राकर्षक है । शंका समाधान करने की शक्ति अलौकिक है । इस वर्ष कांगड़ा में हुए श्री समुद्र सूरि जैनदर्शन शिविर में आपने अपनी इस कला से विद्यार्थियों को मंत्रमुग्ध कर दिया था। जैन संप्रदायों तथा जैनेतर वागङ्मय का चिंतनशील अभ्यास किया है । पर्युषण तथा दसलाक्षणी श्रादि पर्वो में आपके शास्त्र प्रवचनों से लाभान्वित होने के लिए श्वेतांबर और दिगम्बर जैनसंघ समान रूप से सदा निमंत्रित करते हैं । लेखन शैली में गम्भीरता और सरलता रूप गंगा जमुना का संगम रहता है। जैनदर्शन तथा इतिहास के प्रति आपकी सच्ची आस्था और अनुराग अत्यन्त प्रशंसनीय है जो कि आपके द्वारा लिखे हुए ग्रंथों में प्रत्यक्ष रूप से दृष्टिगोचर होती है । आपने अपनी लेखनी द्वारा राष्ट्रभाषा हिन्दी में अनेक उत्तम पुस्तकों का सृजन तथा अन्य भाषाओं से भाषांतर भी किया है । अपनी समस्त प्रकाशित व प्रकाशनीय पुस्तकों की सूची शास्त्री जी ने इस पुस्तक में अन्यत्र दी होगी । २३ प्रकाशित और लगभग १० तैयार हो रही पुस्तकों का यह लेखक अभिनन्दनीय है । आपकी अधिकांश पुस्तकें अब अप्राप्य हैं । आपकी पुस्तक निग्गंठ नायपुत्त श्रमण भगवान महावीर तथा मांसाहार परिहार" मैंने प्राद्योपांत पढ़ी है । इस पुस्तक के द्वारा आपकी अनुपम प्रतिभा की झलक मिलती है। इस एक पुस्तक द्वारा यह अनुमान लगाया जा सकता है कि आपकी अन्य पुस्तकें भी कितनी उच्चकोटि की होंगी। इस पुस्तक के लिए प्रापको श्री आत्मानन्द जैन महासभा उत्तरी भारत ने वि.सं. २०२२ को प्रक्षय तृतीया के दिन ई. स. १६६५ को श्री हस्तिनापुर में वर्षीय तप पारणा महोत्सव पर चतुविध संघ के समक्ष पुरस्कृत कर सम्मानित किया । इस महत्वपूर्ण पुस्तक में जैन निर्ग्रथ मुनियों तथा श्रमण भगवान् महावीर पर लगाए गए मांसाहार के श्रारोपों का वेद, पुराण, उपनिषद, जैनागम, इतिहास, तर्क, चिकित्सा शास्त्र आदि के दृष्टिकोणों को लेकर प्रतिकार किया है । धर्म पर अगाध श्रद्धा होते हुए भी प्राप रूढ़िवादी नहीं है । २७ वर्ष की आयु में आपने अन्तर्जातीय, अन्तर्प्रान्तीय तथा अन्तर सम्प्रदाय में विवाह कर एक क्रान्तिकारी कदम उठाया । विवाह भी बड़े आदर्श रूप से हुआ। आप श्वेतांबर हैं तो आपकी पत्नी सुश्री कलावती दिगम्बर सम्प्रदाय की थीं। आप पंजाब के और प्रापकी पत्नी उत्तरप्रदेश की थीं । आप ओसवाल हैं और प्रापकी पत्नी पोरवाल थीं । सन् १९६६ में आपकी धर्मपत्नी का देहान्त हो जाने के पश्चात् श्रापने दिल्ली में शांतमूर्ति आचार्य श्री विजय समुद्र सूरिजी से विधिवत् सम्पूर्ण ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण किया । अभक्ष्य अनन्तकाय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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