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________________ जैनधर्म की प्राचीनता और लोकमत उपवास किया। तब वे बैसाख सुदी ३ को आहार के लिए हस्तिनापुर पहुँचे, उस समय उनकी जटाओं का वर्णन इस प्रकार करते हैं "जं जं उवणेइ तं तं नेच्छइ जिणो विगय मोहो । लंबंत जडा भारो, नरवई भवणं समणुपत्तो ॥ (४८) अर्थात्--जो जो वस्तु (ऋषभदेव को देने के लिए) मनुष्य लाते हैं, वह वह मोहहीन भगवान नहीं चाहते थे। (वह ऋषभदेव) जिनकी लम्बी जटाओं का भार था राजा (सोमयश) के महल के पास पहुंचे। जैनागम कल्पसूत्र तथा भक्तामर की टीका में श्री ऋषभदेव ने चारमुष्टि लोच करके पांचवीं मुष्टि के केश इन्द्र की प्रार्थना करने पर अपने सिर पर रहने दिये थे, इसका उल्लेख हम पहले कर आये हैं । यह भी लिख पाए हैं कि श्वेताम्बर शास्त्र ही ऋषभ के सिर पर जटाजूट मानते हैं पर दिगम्बर परम्परा इसे स्वीकार नहीं करती। ___श्री ऋषभदेव के सिर पर जटाजूट और कंधों पर लटकते हुए केशों वाली प्रतिमाएं भी जैनमन्दिरों में विद्यमान हैं। हम लिख पाये हैं एक ऐसी ही केशों वाली (सातिशय) ऋषभदेव की मूर्ति उदयपुर जिले में रिखभदेव नामक गांव में श्वेताम्बर जैन मन्दिर (जो इन केशों के कारण केशरियानाथ के नाम से प्रख्यात है) में मूलनायक रूप में विराजमान है। महाराजा श्रीपाल (सिद्धचक्र पाराधक) ने भी रत्नसान पर्वत के मध्य रत्नसंचया नामक नगर के राजा कनककेतु के श्री ऋषभदेव के जिनमन्दिर में ऐसे ही केशों वाली श्री ऋषभदेव की प्रतिमा के सामने स्तुति की थी। ऐसा उल्लेख श्वेतांबर प्राचार्य श्री रत्नशेखर सूरि ने अपने प्राकृतश्रीपाल-चरित्र में भी किया है। यथा "कल्लाणकारणुत्तम-तत्त-कणय-कलिस-सरिस-संठाण । कंठ-ट्ठिअ-कल-कुतल-नीलुप्पल-कलिय ! तुज्झ नमो ॥५५०॥ आईसर ! जोईसर-लय-गय-मण-लक्खिय-सरूव। भव-कुव-पडिय-जंतु-तारण ! जिणनाह ! तुज्झ नमो॥५५१॥ (संस्कृत) कल्याणस्य कारणं यत् उत्तमं तप्तं कनक-सुवर्णं तस्य यः कलशः तेन सदृशं संस्थानं आकारो यस्य तस्य तत् संबोधनं-हे कल्याणकारण-संस्थान ! पुनःकण्ठे स्थित ये कलामनोहरः कुंतला:-पंचममुष्टि सम्बंधि--कुंडलाकारे (जटा-जूट) केशास्त एव नीलोत्पलानि ज्ञेयानिकलित ! तुभ्यं नमः ॥५५०।। हे आदीश्बर (ऋषभदेव)! पुनर्योगीश्वरानां लयं गतानि-लीनतां प्राप्तानि यानि मनोलक्षणानि तैर्लक्षितं स्वरूपं यस्य सः तत्संबुद्धौ हे योगीश्वर! लयगत मन लक्ष्यलक्षित स्वरूप ! पुनर्भवकूपे पतितान् जन्तून उत्-ऊर्ध्वं तारयतीति भवजन्तूतारणस्तत् संबुद्धौ हे भवकूपपतित तारक ! जिननाथ ! तुभ्यं नमः ।।५५१।। भावार्थ-हे कल्याण के कारण उत्तम तपे हुए स्वर्ण के कलश! के तुल्य सुन्दर शरीर वाले ! ____ 1. श्री ऋषभदेव के शरीर का वर्ण अग्नि में तपे हुए स्वर्ण के समान तेजोमय था। उनके सिर पर पांचवीं . मुष्ठि के बचे हुए जटाजूट कंधों पर लटकते हुए केश थे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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