________________
६०२
मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म
श्राप एक सुलझे हुए विचारक, उत्तम परामर्शदाता, और अपने समय के प्रभावशाली और विशिष्ट व्यक्तियों में से एक थे । आप आदर्शवादी समाजसेवी, गुरुभक्त, गंभीर और दूरंदेश थे । व्यक्ति को पहचानने का सामर्थ्य आपमें अद्भुत था । ग़ैरों को अपना बनाने में आपको मुहारत हासिल थी । अपने वचन आप अत्यन्त पक्के और पाबन्द थे । आप सोलह वर्षों तक लगातार स्थानीय नगरपालिका के सदस्य तथा कुछ समय के लिये प्रधान भी रहे। एक बार तो आप बिना मुकाबले के ही नगरपालिका के सदस्य निर्वाचित हुए। सब नगरवासी प्रापको बड़ी इज्जत से देखते थे। नागरिक तथा ग्रामीण लोग व्यापारोचित कठिनाइयों को सुलझाने के लिये आपके पास आते थे और आपके मार्गदर्शन पर श्राचरण करके गुलथियों को सुलझाने में सफल मनोरथ होते थे ।
ई० सं० १९७२ जुलाई २६ को प्रातः छह बजे श्राप परलोक सिधार गये पीछे अपने इकलौते पुत्र सर्वश्री सत्यपाल तथा दो पुत्रियों को छोड़ गये ।
और अपने
PIPE
श्रापके सुपुत्र श्री सत्यपाल द्वारा आपकी स्मृति में श्री आत्मानन्द जैन कालेज अम्बाला के जैनेतर विद्यार्थियों में जैनधर्मशिक्षा की प्रतियोगिता के लिये प्रतिवर्ष पारितोषक वितरण किये जाते हैं । ताकि उनको भी जैनधर्म के सिद्धांतों का परिचय प्राप्त हो जावे ।
ब्रह्मचारी शंकरदास जी नौलखा
जीरा जिला फिरोजपुर (पंजाब) में लाला लालूमल जी प्रोसवाल नौलखा के पुत्र श्री उधममलजी के तीन पुत्र थे । १. श्री तुलसीराम, २. श्री हेमराज, ३. श्री शंकरदास । श्री
शंकरदास जी का जन्म ई० स० १८८४ में जीरा में हुआ । तुलसीराम तथा शंकरदास के कोई संतान नहीं थी । शंकरदास जी का विवाह १४ वर्ष की आयु में राहों (पंजाब) में सुश्री भागवन्ती से हुआ था । वि० सं० १९७३ ( ई० स० १९१६) में आप की पत्नी ने भावनगर में पंजाबी साध्वी श्री हेमश्री जी से भागवती दीक्षा ग्रहण की और बीस वर्ष चरित्र पालकर ई० स० १९३५ में लुधियाना (पंजाब) में स्वर्गस्थ हो गईं । नाम चंपकश्री जी था ।
आप की भावना भी दीक्षा लेने की थी। पर टांग में चोट लग जाने से आप कुछ लंगड़ा कर चलने लगे तथा दूसरी बात यह थी कि आपको तम्बाकू, चिलम पीने का व्यसन था ।
तीसरी बात यह थी कि श्राप के बड़े भाई हेमराज जी अपने बेटे खेतराम को नौ मास का छोड़कर स्वर्गस्थ हो गये इसलिये उनके पालन पोषण की जिम्मेवारी भी प्रापके ऊपर थी । इस लिये दीक्षा में ये तीनों बातें बाधक रहीं । तथापि पत्नी के दीक्षा ले जाने पर आपने चतुर्थ व्रत (पूर्ण ब्रह्मचर्य व्रत ) ग्रहण किया और आप ब्रह्मचारी जी के नाम से प्रसिद्धि पा गये । महाव्रत न लेने पर भी आप यतियों (पूजों) के समान जैनशासन की सेवा में जुट गये ।
196
वि० सं० १९६७ व १९७२ में जीरा में दो चतुर्मास मुनि श्री श्रमी विजय जी और रविविजय जी ने किये । इस समय से आप को घर्म की लगन लगी । मुनियों से जैनदर्शन का अभ्यास किया और गुजराती भाषा को भी सीखा ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org