SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 64
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनधर्म की प्राचीनता और लोकमत ३७ सोमवार रोहिणी नक्षत्र शोभन योग के द्वितीय प्रहर में लेता युग की उत्पत्ति हुई। इस युग में वामण, परशुराम, रामचन्द्र ये तीन अवतार हुए । ( ३ ) माघ कृष्णा अमावस्या, शुक्रवार, धनिष्ठा नक्षत्र, परिघ योग, वृष लग्न में द्वापर युग का प्रारम्भ हुआ । इसमें कृष्ण और बुद्ध दो श्रवतार हुए। (४) भाद्रपद कृष्णा १३ रविवार अश्लेषा नक्षत्र, व्यतिपात योग में आधी रात को मिथुन लग्न में कलियुग का जन्म हुआ। इस युग में कल्की नाम का एक अवतार होगा । ऋषभ और शिव ऋषभ और शिव दोनों ही प्रति प्राचीन काल से भारत के महान प्राराध्य देव हैं । वैदिककाल से लेकर मध्य युग तक प्राच्य वाङ्मय में दोनों का देव - देवताओं के विविध रूपों में उल्लेख हुआ है | उपलब्ध भारतीय प्राच्य साहित्य के अध्ययन से स्पष्ट है कि भगवान ऋषभदेव को जो मान्यता और पूज्यता जैन परम्परा में है, हिन्दू परम्परा में भी उन्हें उसी कोटि की है । जिस प्रकार जैन परम्परा में उन्हें मान्य और संस्तुत किया गया है उसी प्रकार हिन्दू वेद, पुराण शास्त्र भी उन्हें भगवान् के अवतार रूप में मान्य करते हैं । इसका उल्लेख हम विस्तारपूर्वक कर आये हैं । अब तो अधिकतर पुरातत्त्ववेत्ताओं की धारणा दृढ़ होती जा रही है कि शिव ऋषभ का ही रूपान्तर हैं । अर्थात् शिव और ऋषभ दोनों एक ही हैं । ऋषभ को जैनों ने अर्हत् रूप में इस काल का प्रथम तीर्थंकर और जैनधर्म का आदि संस्थापक माना है । अधिकांश इतिहासकार यह स्वीकार करते हैं कि शिव वैदिक आर्यों के देव नहीं थे। जब वैदिक आर्य लघु एशिया और मध्य एशिया के देशों से होते हुए लगभग ३००० हज़ार वर्ष ईसा से पूर्व इलावत और उत्तर पश्चिम के द्वार से पंजाब में आये थे इस समय शिव के उपासकों की संख्या की यहां कमी नहीं थी । सिन्धु उपत्यका और मोहन-जो-दड़ो, हड़प्पा शाखा की खुदाई से शिव की मूर्तियों की उपलब्धि से भी इस बात की पुष्टि होती है कि प्राचीन काल में भारत में शिव की मान्यता बहुत प्रचलित थी। उन्हें शिव, महादेव, रुद्र, व्रातपति, शंकर, त्रिनेत्र, महेश्वर, गिरीश, गिरिचर, त्र्यम्बक, ऋषभध्वज, क्षत्रपति आदि विविध नामों से संबोधित किया जाता रहा है। मोहन-जो-दड़ो, हड़प्पा आदि के उत्खनन से जो शिव और ऋषभ की शिलायें मिली हैं दोनों की ध्यानावस्था, योगी, नग्न और खड़ी मुद्रा में मिली हैं। जिनको बड़ी सूक्ष्म दृष्टि से देखने से ही दोनों में कुछ अन्तर मालूम पड़ता है । इससे स्पष्ट है कि सीलों में अंकित मुद्राओं में शिव और ऋषभ की बहुत समानता है । जब वैदिक आर्य भारत आए तो उन्होंने पंजाब में आकर ऋग्वेद की रचना की और उसमें शिव को योगी और आध्यात्मिक उपास्यदेव के रूप में चित्रित किया और उसे अपने उपास्यदेव के रूप में मान लिया । पर आश्चर्य और खेद का विषय है कि पौराणिक ब्राह्मणों ने श्रागे चलकर शिवपुराण, देवी भागवत, मत्स्य पुराण, श्रीमद्भागवत की श्रुतसागरी टीका आदि पुराणों में शिव का स्वरूप अज्ञानी, कामी, स्त्रीलंपट, क्रोधी, मानी, लोभी, मायावी आदि अत्यन्त वीभत्स रूप में चित्रित करके प्रति विकृत कर दिया। महादेव, देवाधिदेव, शिव स्वरूप परम आध्यात्मिक उपास्य देव को अत्यन्त घटिया दर्जे का बना दिया। शिवलिंग जो सिद्धावस्था का प्रतीक था उसे स्त्री-पुरुष की जननेन्द्रियों को मैथुन करते हुए बदल दिया। शिव के ऐसे विकृत चरित्रों को पढ़ने सुनने से सभ्य समाज का सिर मारे शरम के झुक जाता है । अधिक क्या लिखें। भूखनन से ढोलवाहा जिला होशियारपुर से पाषाण का एक प्राचीन शिवलिंग पुरातत्त्व विभाग को मिला है जो बड़े थाल समान गोलाकार पाषाण के मध्य भाग में गोलाकार ऊंचा शिवलिंग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy