SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 625
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५७६ मध्य एशिया और पजाब में जैनधर्म ___ सार्वजनिक कार्यों में पाप पूरा-पूरा भाग लिया करते थे। हिंदू सभा के पाप मुख्य सदस्य थे। जब हिंदुओं को अम्बाला शहर को म्युनिसिपिल कमेटी में आपको मेम्बर बनाने की आव. श्यकता हुई तो उस मेम्बरी को स्वीकार किया तथा जनता की आज्ञा को शिरोधार्य कर मेम्बर होते ही अपने त्याग पत्र भी दे दिया । स्थानीय नागरी प्रचारिणी सभा बनायी। स्काउट एसोसियेशन तथा बार एसोसियेशन के आप कोषाध्यक्ष थे। परन्तु आपकी सबसे बड़ी सेवा शिक्षा प्रचार की है । आप श्री प्रात्मानंद जैन हाई स्कूल अम्बाला शहर के २५ वर्ष तक मैनेजर रहे। इस संस्था की नींव को सुदृढ़ करने के लिए आपने मद्रास प्रांत तक भ्रमण करके धनराशि एकत्र की। यथा समय और यथाशक्ति अपने पास से भी बहुत कुछ दिया और औरों से भी दिलाया। श्राप श्री आत्मानंद जैन महासभा पंजाब के सभापति थे। श्री हस्तिनापुर जैनश्वेताम्बर तीर्थ कमेटी के भी पाप ही प्रमुख थे, श्री प्रात्मानंद जैन गुरुकुल पंजाब (गुजरांवाला) के ट्रस्टी और कार्यकारिणी समिति के मुख्य सदस्य थे । आपके निरीक्षण और आपकी सहयोगिता से इन संस्थाओं ने अच्छी समाज सेवा की है। और प्रतिदिन उन्नति कर रही हैं । आप श्री प्रात्मानंद जैन सभा अम्बाला शहर के प्रधान रहे हैं। स्कूलों में पढ़ाये जाने वाली इतिहास की पुस्तकों में जैनधर्म के विषय में जो कुछ अंडबंड लिखा जाता रहा है उसका निराकरण कराना एक सहज बात नहीं थी। परन्तु आपने अप्ररिहत परिश्रम से उसमें भी सफलता प्राप्त की। श्री प्रात्मानंद जैन ट्रैक्ट सोसायटी ने प्रापके प्रधानत्व में १८ वर्ष तक जैनधर्म का जो प्रचार जैनों तथा सर्व साधारण में किया है वह समाज से छिपा नहीं है। आपकी शान्त चिन्ता, सत्यप्रियता, निर्लोभता तथा धर्म वत्सलता आजकल के नवयुवकों के लिये प्रादर्श रूप थी। उमर भर पाश्चात्य शिक्षा के वातावरण में रहकर भी आप अपने प्यारे जैनधर्म एवं जैन संस्कृति को नहीं भूले । प्रतिदिन पूजा सामायिक, तिथियों को पौषध आदि करना आपका स्वभाव ही थां। १६२२ में जब श्री मज्जैनाचार्य श्री विजयवल्लभ सुरि यहाँ पधारे थे तब आपने जीवन पर्यंत ब्रह्मचर्य व्रत अंगीकार किया । २४ साल की युवावस्था में अबला विधवा को छोड़कर निज सुपुत्र वाबू जिनदास के परलोक गमन का दुःख अभी आपको भूला भी न था कि पुत्री के अकाल वैधव्य का असहनीय शोक सामने आ खड़ा हुआ । इस हादिक वेदना के कारण आपकी प्रवृत्ति त्याग मार्ग में बहुत बढ़ गई परन्तु आपका दुर्बल शरीर इस कष्ट को सहन न कर सका । आपने दो चार वस्तुओं को छोड़ कर सब भोज्य पदार्थों का त्याग कर दिया । पक्ष में कई-कई उपवास किए और जिस दिन उपवास न हो उस दिन भी बहुत थोड़ा खाने के कारण प्रापका शरीर निर्बलता धारण करता गया । जिगर रोग पैदा हो गया। इस प्रकार आप तीन मास तक इन कष्टों को बड़ी शांति धैर्य तथा दृढ़ता से सहन कर अन्त में देव, गुरु का स्मरण करते हुए वीतराग धर्म में अटूट श्रद्ध दिखाते हुए, पंच परमेष्ठी मंत्र का उच्चारण करते हुए सद्भावना के साथ १२ फरवरी १६३१ को स्वर्ग सिधार गए। आपकी मृत्यु से सकल श्रीसंघ पंजाब, विशेषतः स्थानीय जैन समाज के अपार दुःख हुप्रा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy