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________________ रतनचन्द जी महान् गुरुभक्त, सुश्रावक श्री रतनचन्द जी (#0 ० रतनचन्द रिखभदास जैन दिल्ली ) त्यागी संतो में जैसे गुरुदेव श्री विजयवल्लभ सूरीश्वर जी महान् माने जाते हैं, वैसे ही श्रावकवर्ग में श्री रतनचन्द जी महान् माने जाते है । आपने मात्र भारत में ही नहीं बर्मा और रंगुन आदि तक गुरुवल्लभ के मिशन का प्रचार किया है । आपको जिनेन्द्र-भक्ति एवं गुरु-भक्ति के उच्च संस्कार अपने पूज्य पिता लाला सुन्दरमल जी जैन से प्राप्त हुए हैं । सन् १९०८ में होशियारपुर में आपका जन्म हुआ । साधारण स्कूली शिक्षा पाई, किंतु गुरुकृपा एवं देव- कुपा से आपके बौद्धिक विकास का क्षेत्र अत्यन्त व्यापक है | आपके द्वारा सोने चांदी के शोध कार्यालय दिल्ली, श्रागरा, बम्बई और होशियारपुर में स्थापित किए गए और आपके द्वारा संचालित प्रौद्योगिक संस्थानों की जैसे कि रतनचंद रिखभदास जैन दिल्ली, नत्थूमल फतूमल जैन होशियारपुर, आर० आर० जैन कैमिकल ( बम्बई, शाहदरा, दिल्ली, होशियारपुर ) की देश विदेशों में भी प्रसिद्धि है । ५७१ सामाजिक क्षेत्र में श्राप श्री श्रात्मवल्लभ जैनस्मारक शिक्षण-निधि के चेयरमैन हैं, श्री आत्मारन्द जैनसभा रूपनगर के विशिष्ट सदस्य हैं। श्री श्रात्मवल्लभ जैन यात्री भवन पालीताना, हस्तिनापुर तीर्थ प्रबन्धक कमेटी, श्री श्रात्मानन्द जैन महासभा उत्तरी भारत, श्री श्वेतांबर जैन कांफ्रेंस बम्बई, एस० ए० जैन कालेज अम्बाला आदि अनेक संस्थानों में आप सम्माननीय पदों द्वारा सम्मानित हैं । श्री श्वेतांबर जैन मंदिर जालंधर आपके पूर्वजों की ही देन है और अपनी गुरुभक्ति से प्रेरित होकर वल्लभ-स्मारक के भूमि-पूजन और खात- मुहुर्त आपके कर कमलों से ही सम्पन्न हुए हैं । पालीताना में श्री विजयानंद पुण्य तिथि मनाने के लिये संगीतविशारद श्री घनश्याम जी आपके साथ गए थे, वहाँ उनको भ्रमण करते हुए साँप ने काट लिया था । आप गुरुभक्ति से प्रेरित होकर श्री वल्लभ-शरण में पहुंच गये और उनके वासक्षेप मात्र से घनश्याम जी स्वस्थ हो गए । आप समाज के एक सुदृढ़ स्तम्भ हैं, देव- गुरु और धर्म के प्रति आपकी अगाध श्रद्धा है । Jain Education International आपके भाई लाला रिखभदास जी सेवाभावी और गुरु के श्रद्धावान हैं। कांगड़ा में हो रहे नवनिर्मित मंदिर का शिलान्यास आपने ही किया है । होशियारपुर में श्राप उपधानतप कराने का दो बार लाभ लिया । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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