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शाह कर्मचन्द जी दूगड़
भाइयों के परिवारों के साथ सद्धर्म के अनुयायी बन गये । श्री बूटेराय जी को अपना धर्मगुरु मान कर उनके उपदेश से यहाँ श्री पार्श्वनाथ जैनश्वेतांबर मंदिर की स्थापना कर दी गई । तत्पश्चात् श्री सद्गुरुदेव ने ढूंढक साधु के वेश में ही पंजाब में सद्धर्म के प्रचार के लिये सर्वत्र विहार किया। परिणाम स्वरूप शास्त्री जी के सहयोग से पूज्य बूटेराय जी ने पपनाखा, रामनगर, किलादीदारसिंह, जम्मू, किला सोभासिंह, पिंडदादनखां आदि पंजाब के अनेक नगरों के परिवारों को प्रतिबोध देकर प्राचीन श्वेतांबर मूर्तिपूजक जैनधर्म के अनुयायी बनाया और वहाँ जिनमंदिरों की स्थापनाएं भी की । पश्चात् पूज्य बूटे राय जी ने वि० सं० १६१२ में अहमदाबाद जाकर हूँ ढक साधु के वेश का त्याग कर श्वेतांबर मूर्तिपूजक जैन तपागच्छीय मुनि श्री मणिविजय जी से सवेगी दीक्षा ग्रहण की। गुरु ने नाम बुद्धिविजय जी रखा (विशेष परिचय के लिये देखें इसी ग्रंथ में मुनि श्री का चरित्र)।
श्रावक व्रत धारण तथा प्रवचन सेवा आप जैनागमों के मर्मज्ञ विद्वान तो थे ही । सद्धर्म स्वीकार करने के बाद आपने सद्गुरुदेव से श्रावक के सम्यक्त्व मूल बारह व्रत स्वीकार किये, रात्रि भोजन का त्याग किया । जिनपूजा आदि षट्कर्म, सामायिक प्रतिक्रमण प्रादि षडावश्यक, चौदह नियम आदि प्रतिदिन करते थे। प्रातः ६ बजे तक प्रतिदिन श्री चिंतामणि पार्श्वनाथ जैनमंदिर के नीचे के हाल के कमरे में बैठकर शास्त्र स्वाध्याय तथा शास्त्रों की प्रतिलिपि करते थे। चैत्र सुदी प्रतिपक्ष से लेकर पासोज सुदी १५ तक प्रतिवर्ष सात मास रात्रि के समय उपाश्रय में श्रावक-श्राविकानों को ढाल, चौपाई, रासों को गायनपूर्वक सुनाने के साथ अर्थ का विवेचन करके अहंत् प्रवचन से लाभान्वित करते थे।
आपका स्वभाव मिलनसार, सरल, मृदु और कोमल था । धर्मानुष्ठान तथा नित्यनियम का पालन करना आपके जीवन का अंग बन चुका था।
___ सहनशीलता और समता वि० सं० १६५१ में आपके इकलौते पुत्र शाह ईश्वरदास का, वि० सं० १९५४ में बड़े पौत्र नन्दलाल का, फिर छोटे पौत्र मुकन्दलाल का, वि० सं० १६५६ में आपके सबसे छोटे भाई श्री गंडामल का भी देहांत हो गया था। इस प्रकार उपरोपरी परिवार में जवान पुत्र, पौत्रों की मत्यू, भुजा के समान छोटे भाई की मृत्यु तथा साथ ही वृद्धावस्था के कारण आप पर असहनीय दुःखों के पहाड़ टूटने लगे, कुछ स्वास्थ्य भी ढीला रहने लगा। परिणामस्वरूप कमाने योग्य अकेले होने से
आप दुकानदारी को भी न संभाल सके, इसलिये आपकी आर्थिक स्थिति भी डांवाडोल हो गयी। फिर भी आपकी सहनशीलता और समता में कमी नहीं आयी।
___ आप श्री सद्ज्ञान प्राप्त करने वाले कोरे शास्त्री ही नहीं थे, परन्तु उस ज्ञान को आचरण में लाकर प्रात्मसात भी किया था । जैसे ज्ञान सम्पन्न थे वैसे ही तत्त्वचिंतक तथा विचारक भी थे। ज्ञान ने साक्षात् चारित्र का रूप धारण कर लिया था। सुख-दुःख में सदा समतावान रहते थे और यह सोचकर सानन्द विभोर हो जाते थे कि दुःखों और कष्टों के आने पर मेरे पाप-पुज झड गये। अतः आपका चेहरा सदा हंसमुख, प्रसन्न और गंभीर रहता था। आप सहनशीलता में अद्वितीय थे।
यदि कोई पापको भला-बुरा कहता अथवा गाली-गलोच बोलता, अपमान करता तब भी आप उसे अपना शुभचिंतक मानकर प्रसन्नता प्रकट करते थे।
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