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________________ मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म श्रीमद् वीरचंद (अमेरिका के) प्रत्येक सज्जन के हृदय में अभी तक स्थित हैं। उनका शरीर नष्ट हो गया, किंतु वे नष्ट नहीं हुए। उनका यश रूपी शरीर अमृत और अमर है अंग्रेजी कहावत है-To live in hearts we leave behind, is not death. अर्थात् - हृदयों में रहना मृत्यु नहीं है । तीर्थादि कार्यों में विजय प्राप्त करने में, जैन धर्म के प्रसार करने में, जड़वादियों के हृदयों पर जैन संस्कारों की छाप डालने में श्रीमद् वीरचंद ने अपने मन, वचन और शरीर से जो आत्मत्याग किया है, उनके लिये सारा जैन समाज उनका ऋणी है। इस स्वर्गस्थ होने वाले के हित के लिये नहीं, बल्कि अपनी कृतज्ञता प्रदर्शित करने के लिये भी जैन समाज ने अपना कर्त्तव्य किस प्रकार पूरा किया ? इसका विचार आते ही समाज की स्थिति और उसकी अकर्मन्यता का दृश्य नाचने लगता है। -:: सद्धर्मनिष्ठा शाह कर्मचन्द जी दूगड़ लाला कर्मचंद जी का जन्म नगर गुजरांवाला पंजाब में लगभग वि० सं० १८७५ (ई० स० १८१८) में शाह धर्मयश के यहाँ हुआ । शाह मथुरादास जी व शाह रांडामल जी आप के छोटे भाई तथा रूपादेवी व निहालदेवी दो बहनें थीं। शाह कर्मचंद जी के इकलौते पुत्र शाह ईश्वरदास जी थे । प्राप दोनों पिता पुत्र सराफा (सोना-चाँदी) का व्यापार करते थे । सही एक दाम तथा पूरा तोल से खरामाल लेने देने के सिद्धांत का दृढ़तापूर्वक पालन करते थे, जिससे आपकी सच्चाई की धाक ग्राहकों पर थी, इसलिये आपकी दुकान पर ग्राहकों की भीड़ लगी रहती थी। माता-पिता से आपको बचपन से ही जैनधर्म के संस्कार मिले थे, संतों के सम्पर्क से प्राप ने ढूंढकमत मान्य ३२ पागमों का अभ्यास थोड़े ही वर्षों में कर लिया था। तबसे आप शास्त्री जी के नाम से प्रसिद्धि पाये । इस समय सारे पंजाब में प्रायः लुकामति ढूंढक पंथ का प्रचार और प्रसार था । गुजरांवाला के सभी प्रोसवाल भावड़े परिवार भी इसी पंथ के अनुयायी थे । इस पंथ के साधु-साध्वियां आपसे जैनशास्त्रों का अभ्यास करने केलिये सदा गुजरांवाला में आते रहते थे और आप भी बड़ी उदारता से निःस्वार्थ भाव से उन्हें जैन शास्त्र-अभ्यास कराते थे। ऋषि बूटेराय (संवेगी दीक्षा के बाद मुनि बुद्धि विजय) जी के बड़े शिष्य ऋषि मूलचंद (संवेगी दीक्षा के बाद मुनि मुक्ति विजय) जी ने ढूंढक पंथ की साधु अवस्था में आप से वि० सं० १६०२ से १६०७ तक छह वर्ष गुजरांवाला में रहकर जैनागमों का अभ्यास किया था । जब कोई साधु-साध्वी यहाँ नहीं होता था तो स्थानक में श्रावक-श्राविकाओं की रात्री के समय जैनधर्म पर व्याख्यान सुनाते थे। __सद्धर्म प्राप्ति-ऋषि बूटेराय जी ने वि० सं० १८९७ (ई० स० १८४०) में जब शाश्वत जैनश्वेतांबर मूर्तिपूजक धर्म के पक्ष की स्थापना की थी, तब सर्वप्रथम ऋषि जी ने अपने मत को सत्यता की कसौटी पर कसने केलिये आपके साथ ही प्रागम (शास्त्र) चर्चा की थी । ऋषि जी को प्रापका समर्थन मिलते ही गुजरांवाला में ही सद्धर्म के पुनरोद्धार करने का श्रीगणेश किया था। जिस के परिणाम स्वरूप चार-पांच को छोड़कर यहाँ के सारे जैनपरिवार प्राप तीनों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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