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मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म
भोगभूमि के बाद कर्मभूमि के प्रारंभ में धरा और धरावासियों की आवश्यकताओं के समाधान के लिए ऋषभदेव ने जिस घोर परिश्रम का परिचय दिया वही परिश्रम आत्मविद्या के पुरस्कर्ता होने पर भी किया । वे श्रमण श्रार्हत् धारा के आदि प्रवर्तक कहे जाते हैं । भागवतकार ने उन्हें नाना योगचर्याओं का आचरण करने वाले "कैवल्यपति की संज्ञा तो दी ही है । ( भागवत ५ | ६ |६४ ) तथा साथ ही उन्हें वातरशना ( योगियों), श्रमणों, ऋषियों और ऊर्ध्वगामी (मोक्षगामी) मुनियों के धर्म का आदि प्रतिष्ठाता और श्रमण धर्म का प्रवर्तक माना है ( ५/४/२० )
यहां श्रमण से अभिप्राय - 'श्राम्यति तपक्लेशं सहते इति श्रमणः' अर्थात् जो तपश्चरण करें वे श्रमण है । श्री हरिभद्र सूरि ने दशवैकालिक की टीका में लिखा है कि- 'श्राम्यन्तीति श्रमणः तपस्यन्तीत्यर्थः । ' (१1३) इसका अर्थ है जो श्रम करता है, कष्ट सहता है, तप करता है वह तपस्वी श्रमण है । भागवत ने वातरशना योगी, श्रमण, ऋषि को ऊर्ध्वगामी कहा है । ऊर्ध्वगमन जीव का स्वभाव है किन्तु कर्मों का भार उसे बहुत ऊंचाई तक नहीं जाने देता । जब जीव कर्मबन्धन से नितांत मुक्त हो जाता है तब अपने स्वभावानुसार लोक के अन्त तक ऊर्ध्वगमन करता है । जैसा कि तत्त्वार्थ सूत्र में कथन है कि - " तदनन्तरमूर्ध्व गच्छत्या लोकान्तात्" (१०१५ ) अर्थात् सम्पूर्ण कम के क्षय होने के बाद तुरन्त ही मुक्तजीव लोक के अन्त तक ऊचे जाता है । जैन शास्त्रों में जहां भी मोक्षतत्त्व का वर्णन आया है वहां पर मुक्तजीव के ऊर्ध्वगमन का विस्तार से वर्णन मिलता है । इसी संदर्भ में वैदिक ऋषियों ने वातरशना श्रमण मुनियों के उध्वंमथी, उर्ध्वरेता श्रादि शब्दों का प्रयोग जन श्रमणों के लिए ही किया है । और ऋषभदेव को इसका प्रवर्तक कहा है । अतः ऋषभदेव जैनधर्म के प्रथम तीर्थंकर थे यह वैदिक साहित्य भी स्वीकार करता हैं ।
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श्री ऋषभदेव ने भारत में इस अवसर्पिणी काल में सर्वप्रथम जैनधर्म का प्रचलन किया । उनका समय संख्यातीत वर्ष पहले का है अतः इसका पता लगाना संभव नहीं है । कहना होगा कि अर्हत् श्रमण निर्ग्रन्थ संस्कृति विश्व की प्राचीनतम आदि सभ्यता है । इस युग में क्रमश: चौबीस तीर्थंकर हो गए हैं । प्रथम ऋषभदेव तथा अन्तिम वर्धमान महावीर थे। महावीर का जन्म ईसा पूर्व ५६६ वर्ष में हुआ और निर्वाण ७२ वर्ष की आयु में ईसा पूर्व ५२७ वर्ष में हुआ । यह धर्म भारत
स्थापित होकर विश्व में विस्तार पाया। विश्व के सब देशों, सब जातियों को सभ्यता प्रदान करके अन्त में सिमट कर भारत में ही विद्यमान रहा है और प्राज भी अपने आदर्शों पर पूर्ववत कायम है । इस बात की पुष्टि राजा शिवप्रसाद सतारे हिन्द ने अपनी " भूगोल स्तामलक" नामक पुस्तक में इस प्रकार की है ।
" दो ढाई हजार वर्ष पहले विश्व का अधिक भाग जैनधर्मं का उपासक था ।"
इस विषय पर हम आगे चलकर विस्तारपूर्वक प्रकाश डालेंगे ।
ऋषभदेव से लेकर महावीर तक चौबीस तीर्थंकर सब भारतवर्ष में ही हुए हैं । उनके विषय में संक्षिप्त विवरण यहां नीचे लिखे कोष्टक में देते हैं । जिससे पता लग जावे कि अर्हत् (जैन) संस्कृति कितनी पुरानी है । इस कोष्टक में चौबीस तीर्थंकरों की आयु तथा उनमें अन्तरकाल आदि से श्राप स्पष्ट जान पायेंगे कि जैनधर्म के प्रारम्भकाल का पता लगाना असंभव है । तथा ऋषभादि की लम्बी आयु के साथ पौराणिक ब्रह्मा, विष्णु और शिव की श्रायु की तुलना करके यह भी बतलायेंगे कि तीर्थंकरों के विषय में कल्पना मात्र नहीं पर वास्तविकता है ।
जैनधर्म किसी खास जाति या सम्प्रदाय का धर्म नहीं है; बल्कि यह अन्तर्राष्ट्रीय, सार्वभौमिक तथा लोकप्रिय धर्म है। जैन तीर्थंकरों की महानात्माओं ने संसार को जीतने की चिन्ता नहीं की, उनका ध्येय राज्य जीतने का नहीं बल्कि स्वयं पर विजय प्राप्त करने का है । राज्यों का जीतना कुछ कठिन नहीं है । लड़ाइयों से कुछ देर के लिए शत्रु दब जाता है, दुश्मनी का नाश नहीं होता ।
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