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________________ साध्वी सुज्येष्ठा श्री विशेष ज्ञातव्य (१) महत्तरा साध्वी श्री जी सदा प्राध्यात्मिक साधना ने तल्लीन रहती हैं। दोपहर के एक बजे से सांय चार बजे तक प्रतिदिन मौन रहकर अपनी शिष्यानों के साथ एकांतवास में स्वाध्याय में तल्लीन रहती हैं । ५३५ (२) श्राप एकांत स्थान में चतुर्मास करने को सदा प्रयत्नशील रहती हैं। लोगों की भीड़भाड़ और कोलाहलपूर्ण वातावरण को श्राप अपनी साधना में बाधक मानकर कांगड़ा, हस्तिनापुर श्रादि ऐसे तीर्थ आदि स्थानों पर जहाँ शान्त वातावरण हो अपना समय अधिकतर व्यतीत करना पसंद करती हैं । (३) आपकी प्रवचन शैली समन्वयात्मक, सरस, भोजस्वी तथा प्रभावोत्पादक होती है। जिसको श्रोतागण ऐसी तल्लीनता से श्रवण करते हैं मानों वहाँ कोई विशेष संख्या में श्रोतागण उपस्थित ही नहीं हैं पर व्याख्यान मंडप में प्रवेश करने पर श्रोताओं से सभामंडप ऐसा खचाखच - भरा होता है कि श्रोताओं को स्थान पाना असंभव हो जाता है । (४) जैनशासन की सेवा और प्रभावना केलिये श्रापके हृदय में ऐसी लगन है कि सब प्रकार के परिषह तथा उपसर्गों को साहस पूर्वक बरदाश्त करके भी, सर्दी और गर्मी की परवाह न करते हुए सतत सर्वत्र, गांव-गांव और नगर-नगर में बिना किसी मददगार को साथ लिये एकाकी अपनी शिष्यानों के साथ विचरण करती हैं । (५) बिहड़ जंगलों, कंटीली झाड़ियों, रेगिस्तानों तथा पथरीली धरती पर नंगे पांव विचरण करते समय भी आप अपने साथ अपनी सहायता केलिये किसी स्त्री अथवा पुरुष नौकर साथ में ले जाना उचित नहीं समझते । यदि कोई श्रीसंघ ऐसी व्यवस्था भी आपके लिये कर दे तो आप कदापि इसे स्वीकार नहीं करते । (६) जितने श्राप प्राणिमात्र के लिये सहृदय है उससे कहीं अधिक कठोर अपने चारित्र को निरतिचार पालन करने में हैं । (७) श्राप सदा ज्ञानार्जन में ही अपना अधिक समय व्यतीत करती हैं । २ - साध्वी सुज्येष्ठा श्री जी गुजरात प्रांत में सीयोर नामक गांव में जैनदर्शन के ज्ञाता श्रावक के १२ व्रतधारी कपड़े के व्यवसायी भगत मणिलाल पटवा की धर्मपरायणा पत्नी हीराबहन की कुक्षी से एक पुत्री का जन्म हुआ । माता पिता ने इस बालिका का नाम शांतिदेवी रखा । वि० सं० २००२ में शांतिबहन ने सोयोर में प्राचार्य श्री विजयउमंग सूरि से दीक्षा ग्रहण की और श्री मृगावती श्री जी की शिष्या बनी । दीक्षा लेने पर नाम श्री सज्येष्ठा श्री जी रखा गया । सुज्येष्ठा श्री जी ने जब से दीक्षा ग्रहण की है तभी से अपनी गुरुणी जी के साथ ही रही हैं और उनके सचिव के समान हर कार्य में सहयोग देती हैं । प्रापने संस्कृत, प्राकृत, गुजराती, हिन्दी प्रादि भाषाओं के साथ जीवविचार प्रादि प्रकरण, कर्मग्रंथ तथा धार्मिकज्ञान में अच्छी योग्यता प्राप्त की है । आप अट्ठाई श्रादि तपस्याएँ भी करती रहती हैं । सरल स्वभावी होने के साथ आप शांतप्रकृति की धनी हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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