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________________ ५३० मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म १-जैनभारती, कांगड़ा तीर्थउद्धारिका, बालब्रह्मचारिणी, महत्तरा साध्वी श्री मृगावती श्री जी आदि ठाणा ४ वि. सं. १९८२ मिति चैत्र शुक्ला ७ के दिन राजकोट (सौराष्ट्र) से १६ मील दूर सरधार नगर में संघवी श्रीडूगरशीभाई की धर्म परायणा अर्धांगिनी श्रीमती शिवकुवर बहिन के एक बालिका ने जन्म लिया। यह बालिका दो बहनें और दो भाई थे। नवजात बालिका का नाम भानुमती रखा गया । बालिका अभी दो वर्ष की भी न हो पायी थी कि पिता का साया सिर से उठ गया। दोनों भाई तथा बड़ी बहन का भी देहांत हो गया। इससे माता के दिल को बड़ा भारी धक्का लगा। दिल पर पत्थर रखकर माता शिवकुंवर अपनी इकलौती पुत्री भानुमती के साथ सरधार नगर में रहने लगीं। एकदा भानुमती सख्त बीमार पड़ गई। सब प्रकार की चिकित्सा कराने पर भी स्वास्थ्य लाभ न कर पाई। जीवित रहने की सब अाशानों पर पानी फिर गया। छोटी अवस्था में ही पिता, भाइयों और बहन की मृत्यु ने तथा अपने असाध्य रोग से भानुमती को संसार की असारता का निश्चय हो गया। माता शिवकुवर भी अपने मन में सोचने लगी कि इस असार-संसार में कोई अपना नहीं है और न ही कोई होगा। केवल धर्म और प्रात्मसाधना ही साथ देगी । अतः उन्होंने प्रतिज्ञा की कि बालिका के स्वस्थ हो जाने पर अपना और बालिका का भविष्य सुधारने के लिये तीर्थ यात्रा करेंगे और भवबन्धन को तोड़नेवाली भागवती दीक्षा ग्रहण करेंगे । इस प्रकार माता और पुत्री दोनों के हृदयों में संसार की प्रसारता का विचार करते हुए वैराग्य उत्पन्न हो गया। भानुमती स्वस्थ हो गई । शारीरिक निर्बलता दूर होने पर मातापुत्री दोनों तीर्थयात्रा के लिये निकल पड़ीं और तीर्थयात्रा करते हुए गिरिराज श्री शत्रुजय तीर्थ पर आदीश्वर दादा की छत्रछाया में वैराग्य भावना की प्रबलता से सांसारिक मोहमाया को तोड़कर वि. सं. १६६५ मिति पोष सुदि १० के दिन श्रीमती शिवकुवर बहन ने ४४ वर्ष की आयु में तथा उनकी पुत्री भानुमती ने १३ वर्ष की आयु में भागवती दीक्षाएं ग्रहण की। दीक्षा लेने पर इनके नाम क्रमशः साध्वी श्री शीलवतीजी व साध्वी श्री मृगावतीजी रखा गया और दोनों परस्पर क्रमशः गुरुणी-शिष्या बनीं। श्री मगावती जी ने विद्या-अध्ययन में मन लगा दिया। श्री छोटेलाल जी शास्त्री, पण्डित बेचरदास जी दोशी, पण्डित सुखलाल जी संघवी डी.लिट और श्री दलसुखभाई मालवनिया तथा आगमप्रभाकर मुनिश्री पुण्यविजयजी महाराज ने इन्हें विचक्षण जानकर विद्याध्ययन कराया। इन के लिये विद्याध्ययन कराने में सेठ कस्तूरभाई लालभाई का पूर्ण सहयोग रहा । तथा माता गुरुणी श्री शीलवती जी का अपार वात्सल्य प्रेरणादायी बना । पापको भारतीय षडदर्शनों का तथा पाश्चात्य विद्याओं का भी प्रौढ़ ज्ञान है। - हीरे की परख जौहरी एक ही झलक में कर लेता है। युगदृष्टा कलिकाल-कल्प-तरु, अज्ञान-तिमिर-तरणि, युगवीर. भारतकेसरी प्राचार्य प्रवर श्री मद् विजयवल्लभ सूरीश्वर जी ने साध्वी श्री मृगावती जी को शासन-प्रभाविका जानकर अपना आशीर्वाद प्रदान किया और कलकत्ता में साधु-मुनिराजों के विद्यमान होने पर भी प्रापको संघ में प्रवचन करने की अनुमती प्रदान की और वो रशासन की इस महाविभूति को चन्दनबाला समान सम्मानित किया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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