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________________ मुनि बसंतविजय तथा मुनि अनेकांतविजय ५१५ समुदाय के साथ जीरा में आए हुए थे। गुरुदेव को लाला अवधमल विनती करके अपने मरणासन्न पुत्र को अन्तिम दर्शन देने के लिए अपने घर ले गये। उस समय बालक को अन्तिम श्वास लेते देखकर सारा परिवार रो रहा था। गुरुदेव ने रोने का कारण पूछा, पिता ने बालक की चिन्ता प्रकट की और कहा—गुरुदेव! आपके प्रताप से यदि यह बाल क स्वस्थ हो गया तो इसे आप श्री के चरणों में समर्पण कर दूंगा। गुरुदेव ने बालक के सिर पर अपने हाथों से मंत्रित वासक्षेप डाला और अपने उपाश्रय में वापिस लौट आये । माता-पिता ने भी भाग्य भरोसे छोड़कर बालक की चिकित्सा एकदम बन्द कर दी। कुछ दिनों बाद बालक एकदम स्वस्थ हो गया। थोड़े समय बाद लाला अवधूमल की मृत्यु हो गयी। माता ने अपने वचन का पालन करते हुए आठ वर्ष के इस बालक को गुरुचरणों में भेंट कर दिया। दीक्षा--आचार्यश्री ने यशदेव को वि. सं. २००७ मिति वैसाख वदि १० के दिन ६ वर्ष की आयु में सादड़ी नगर (राजस्थान)में दीक्षा दी और नाम मुनि बसंतविजय रखा। तथा मुनि श्री विचार विजयजी का शिष्य बनाया। मनि बसन्तविजय जी ने प्रकरण, साधु प्रतिक्रमण, दशवकालिक आदि का अभ्यास किया। संस्कृत, प्राकृत, उर्दू, हिन्दी आदि भाषाओं की जानकारी प्राप्त की। आप स्वाध्याय प्रिय तथा लेखन में रुचि रखते हैं। किन्तु सबसे विशेष बात यह है कि आप तपस्या में अधिक रुचि रखते है । वीसस्थानकतप, नवकार महामंत्र की आराधना, तथा कई वर्षी तप कर चुके हैं और अब भी आपका वर्षीतप चालू है। मुनिपति चरित्र, अर्चना, अर्हत् प्रवचन का हिन्दी रूपांतर तथा आत्मगीता नामक पुस्तकों का हिन्दी भाषा में प्रकाशन भी प्रापने करवाया है। विहार क्षेत्र- राजस्थान, गुजरात, सौराष्ट्र, महाराष्ट्र, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश आदि क्षेत्रों में सतत विहार करते रहते हैं। आपको प्राचीन हस्तलिखित ग्रंथों को देखने और उन्हें संग्रह करने की विशेष रुचि है । आपकी प्रकृति शांत, मिलनसार एवं सरल स्वभाव है। मुनि श्री अनेकान्तविजय तथा उनके शिष्य जीरा जिला फ़िरोज़पुर (पंजाब) के बीसा ओसवाल नौलखा गोत्रीय, लाला देवीदास के घर वि. स. १६७६ को बालक चिमनलाल का जन्म हुआ । पिता का व्यवसाय कपड़े का था। चिमनलाल का विवाह सनखतरा निवासी लाला लालचन्द खंडेलवाल की पुत्री श्रीमती राजरानी से हुआ। इससे तीन पुत्रों की प्राप्ति हुई । पिता की मृत्यु के बाद चिमनलाल जी दिल्ली में अपने परिवार के साथ अपने चाचा शादीलाल के पास चले आये। दिल्ली आने से पहले आपने कांग्रेस के स्वतंत्रता प्रान्रोलन, विनोबा भावे के भूदान यज्ञ आन्दोलन में भाग लिया, पश्चात् वैष्णव संन्यासी की दीक्षा ली, उसमें आत्म-कल्याणकारी-मार्ग न पाकर संन्यास अवस्था का त्यागकर वापिस अपने घर गृहस्थाश्रम में चले आए और दिल्ली में सौदागरी के सामान की दलाली (brocker) का काम शुरू किया। आपने परिग्रहपरिमाण, स्थूलमृषावाद विरमण आदि श्रावक के व्रत ग्रहण किए और चतुर्थव्रत पूर्णब्रह्मचर्य का व्रत भी सपत्नी ग्रहण किया। परिग्रह परिमाण तथा सत्यव्रत के कारण आपका धन्धा खूब चमका। सारी मार्कीट के विश्वास पात्र दलाल बन गये । परिग्रह का आपने जो नियम लिया था, प्रतिदिन जब उतनी माय हो जाती थी तब आप धन्धा बन्द कर देते थे । दुकानदारों को कल के लिए आपका इन्तजार करना पड़ता था। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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