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________________ ५१२ मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म उल्लेख श्री हरिभद्र सूरि जैसे—प्रतिष्ठित प्राचार्य ने अपनी आवश्यकवृत्ति पृ० ७६० में किया है, वह विधि बहुत अंशों में अपरिवर्तित रूप से ज्यों की त्यों जैसी श्वेतांबर मूर्तिपूजक परम्परा में चली पाती है वैसी स्थानकमार्गी फिरके में नहीं है । यह बात तपागच्छ, खरतरगच्छ आदि गच्छों की सामाचारी देखने से स्पष्ट मालूम हो जाती है । स्थानकमार्गी सम्प्रदाय की सामाचारी में जिस प्रकार आवश्यक क्रिया में बोले जाने वाले कई प्राचीनसूत्रों की जैसे-पुक्खरवरदीवड्ढे, सिद्धाणं-बुद्धाणं, अरिहंत चेइयाणं, पायरिय उवरज्झाय, अब्भुटिठोऽहं इत्यादि की काटछांट कर दी गई है। इसी प्रकार उस में प्राचीन विधि की भी काट-छांट नजर आती है । इस के विपरीत तपागच्छ, खरतरगच्छ की सामाचारी में 'आवश्यक' के प्राचीन सूत्र तथा प्राचीन विधि में कोई परिवर्तन किया हुआ नजर नहीं आता। अर्थात् इस में 'सामायिक' प्रावश्यक से लेकर यानी प्रतिक्रमण की स्थापना से लेकर प्रत्याख्यान' पर्यन्त के छहों 'आवश्यक' के सूत्रों का तथा. बीच में विधि करने का सिलसिला बहुधा वही है जिसका उल्लेख श्री हरिभद्र सूरि ने किया है। यद्यपि प्रतिक्रमण स्थापन से पहले चैत्यवन्दन करने की और छठे आवश्यक के बाद सज्झाय स्तवन स्तोत्र प्रादि पढ़ने की प्रथा पीछे सकारण प्रचलित हो गई है । तथापि मूर्तिपूजक श्वेतांबर परम्परा की आवश्यक सामाचारी में यह बात ध्यान देने योग्य है कि उसमें आवश्यकों के सूत्रों का तथा विधि अभी तक प्राचीन और सहज ही चला आता है। पावश्यक और श्वेतांबर-दिगम्बर परम्पराएं आवश्यक क्रिया जैनत्व का प्रधान अंग है । इसलिए जैन समाज की श्वेतांबर-दिगम्बर दोनों परम्परात्रों में पाया जाना स्वाभाविक है। श्वेतांबर परम्परा में साधु परम्परा अविच्छिन्न चलते रहने के कारण साधु-श्रावक दोनों की आवश्यक क्रिया तथा आवश्यक सूत्र अभी तक मौलिक रूप में पाये जाते हैं। इसके विपरीत दिगम्बर संप्रदाय में साधु परम्परा विरल तथा विच्छिन्न हो जाने के कारण साधु सम्बन्धी 'आश्वयक' क्रिया तो लुप्तप्राय है ही, पर उसके साथ-साथ उस सम्प्रदाय में श्रावक सम्बन्धी आवश्यक क्रिया भी बहुत अंशों में विरल हो गई है। इस कारण दिगम्बर संप्रदाय के साहित्य में आवश्यक सूत्र का मौलिक रूप में सम्पूर्णतया न पाया जाना ही है ।। अतः उपर्युक्त कारणों से इन दोनों मुनियों ने श्वेतांबर मूर्तिपूजक परम्परा में ही दीक्षित होने का लाभ लिया। पंन्यास जयविजय जी गरिण म्यानी अफ़ग़ानां जिला होशियारपुर (पंजाब) में श्वेतांबर जैनधर्मानुयायी खंडेलवाल जाति के लाला रामचन्द जी की पत्नी श्रीमती द्रोपदीदेवी की कुक्षी से वि. सं. १६७१ में एक बालक का जन्म हुआ। माता-पिता ने इस बालक का नाम तीर्थराम रखा । लाला रामचन्द जी का व्यवसाय कपड़े की दुकानदारी का था । आप धार्मिक वृत्ति के थे। धर्म में अगाध श्रद्धा और रुचि थी। लाला रामचन्द जी के तीन पुत्र थे । १–सरहंदी लाल, २-तीर्थराम और ३--सरदारी लाल । ये तीनों भाई कपड़े का व्यवसाय अपने पिता के साथ करते थे। पिता के देहांत हो जाने के बाद सरहदीलाल सिरसा चला गया। वहां उसने कपड़े की दुकानदारी की और अन्त में वहीं उसका 1. पंडित सुखलाल द्वारा लिखित श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र सार्थ की प्रस्तावना का उपयोगी प्रश। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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