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________________ ५१० मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म _____ मुनि श्री रतनविजय (हाकिमराय) जी जैनाचार्य विजयानन्द सूरि (प्रात्माराम) जी महाराज के साथ जिन १६ साधुओं ने ढूंढक पंथ का त्याग कर सवेगी दीक्षा ग्रहण की थी, उनमें से एक ऋषि हाकिम राय जी भी थे। आप सवेगी दीक्षा के बाद आचार्य श्री विजयानन्द सूरि जी के शिष्य रतनविजय जी के नाम से हुए। आपने पंजाब में प्राचार्य श्री के मिशन को सफल बनाने के लिए भारी योगदान दिया । आप होशियारपुर निवासी प्रोसवाल वंश में नाहर गोत्रीय थे। आपके छोटे भाई का नाम लाला गोरामल था। प्राचार्य विजय विद्या सूरि व प्रशांतमूर्ति मुनि विचारविजय जी होशियारपुर (पंजाब) बीसा ओसवाल (भावड़ा) नाहर गोत्रीय अच्छरमल और मच्छरमल दोनों भाई वि० सं० १९४४ में जोड़ा (युगल) जन्मे । वि० स० १६६५ चैत्र वदि ५ को जयपुर (राजस्थान) में प्राचार्य श्री विजयवल्लभ सूरि जी से दोनों भाइयों ने २१ वर्ष की प्रायु में दीक्षा ग्रहण कर आचार्य श्री के ही शिष्य बने । अच्छरमल का नाम मुनि विद्याविजय तथा मच्छरमल का नाम मुनि विचारविजय रखा गया। मुनि विद्याविजय जी क्रमशः गणि, पन्यास तथा प्राचार्य पदवियों से विभूषित हुए । आचार्य पद पाने पर आपका नाम आचार्य विजयविद्या सूरि हुआ। आपका एक शिष्य था मुनि उपेन्द्रविजय । मुनि विचारविजय जी का एक शिष्य मुनि बसन्तविजय जी है। विजयविद्या सूरि जी का वि० सं० २००७ मिति मार्गशीर्ष सुदि १० को जूनागढ़ में स्वर्गवास हुआ और मुनि विचारविजय जी का स्वर्गवास वि० सं० २०१० में दिल्ली में हुआ। आप दोनों भाई बालब्रह्मचारी, स्वरूपवान, गौरवर्ण, सरल स्वभावी, मिलनसार, महातेजस्वी थे । आप दोनों भाइयों के चेहरे ऐसे मिलते-जुलते थे कि दोनों को अलग-अलग पहचानना दुष्कर था। मुनि विवुधविजय तथा मुनि विज्ञान विजय वि० सं० १६६४ को श्री जगलराम ब्राह्मण तथा घासीराम दोनों ढूंढक साधु की दीक्षा का त्याग कर प्राचार्य श्री विजयवल्लभ सूरि जी के पास संवेगी दीक्षा लेने के लिए अमृतसर पंजाब में आए । प्राचार्य श्री ने उन्हें कहा कि तुम लोगों का उस फिरके की दीक्षा को त्याग करके यहां आने का कारण क्या है ? तब उन्होंने विनम्र होकर प्रांखों में प्रांसू भरकर कहा कि गुरुदेव ! आत्म साधक केलिए श्री वीतराग सर्वज्ञ तीर्थकर भगवन्तों द्वारा प्ररूपित धर्म का पालन करना अनिवार्य है आप जिस परम्परा के साधु हैं वही वीर परम्परा का अखंड प्रतिनिधित्व है और सर्वगुण सम्पन्न है । इसलिए हमें दीक्षित करके इस सत्पथ का अनुगामी बनाइये । गुरुदेव ने उनका अत्यन्त आग्रह देखकर अमतसर में वि. सं. १९६४ मिति मार्गशीर्ष सुदि ११ को श्वेतांबर मुनि की दीक्षा देकर अपने शिष्य मुनि विमलविजय के शिष्य बनाए। उनके नाम क्रमशः मुनि विबुधविजय जी तथा मुनि विज्ञान विजय जी रखे। ये दोनों पंजाबी थे। संवेगी दीक्षा लेने के बाद अधिकतर गुजरात में ही विचरे । इस परम्परा में क्या विशेषता है इसका हम क्रमशः उल्लेख करते आ रहे हैं । यथा १--वीर शासन से अखंड सम्बन्ध, २-तीर्थंकरदेवों की उपासना का माध्यम जिनप्रतिमा की मान्यता, ३मुंहपत्ती का जैनागम सम्मत प्रयोग तथा ४-छः प्रावश्यक (प्रतिक्रमणादि) का तीर्थकर देवों द्वारा प्ररूपित विधि से पालन, ५- तीर्थंकरों द्वारा प्रकटित द्वादशांगवाणी जो गणधरों द्वारा प्रागम रूप में संकलित है उनकी वास्सादार, ६-तीर्थंकर देवों की समस्त कल्याणक भूमियों पर उनके स्तूपों, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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